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- आईआईटी में जातिवाद
आदित्य चोपड़ा: दुनिया के सभी जाने-माने दार्शनिकों के अनुसार किसी भी देश की तरक्की का मोटा पैमाना यह होता है कि उसमें महिलाओं की स्थिति क्या है अर्थात वहां के समाज में उन्हें कितना सम्मान व आदर प्राप्त होता है। दूसरा महत्वपूर्ण पैमाना यह माना जाता है कि उस देश में मानवता का क्या मापदंड निर्धारित होता है अर्थात अमीर-गरीब या अन्य व्यावहारिक अखलाक में समाज के लोगों में आपस में कैसा रसूख है। मनुष्य का मनुष्य के साथ व्यवहार यदि सामाजिक रूढि़यों के आवरण में भेदभाव पूर्ण होता है तो उस समाज को कभी भी विकसित या आधुनिक अथवा मानवतावादी नहीं कहा जा सकता और जिस समाज में मानवीय मूल्यों की कद्र नहीं होती उसका पतन भी अपने अन्तर्विरोधों को दास बन जाता है। भारत के सन्दर्भ में यह सोचना होगा कि इस देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज में जाति प्रथा एक कोढ के समान है जिसकी वजह से सदियों से इसका वास्तविक चहुंमुखी विकास अवरुद्ध रहा है। यहां तक कि विदेशी आक्रमणों का सटीक मुकाबला न करने की एक वजह भी जातिवाद रही है क्योंकि मध्यकाल तक राजा-महाराजाओं की सेनाओं में भर्ती होने का अधिकार भी केवल क्षत्रिय वर्ग के लोगों को ही था। हिन्दू समज की चातुर्वर्ण व्यवस्था ने अपने ही समाज के 75 प्रतिशत से अधिक लोगों को शिक्षा ग्रहण करने तक से वंचित कर रखा था और उनका कार्य केवल अपने से ऊपर कहे जाने वाली जातियों की सेवा करना बना दिया था। इन्हें शूद्र कहा गया और साथ ही इन्हें अस्पर्श्यता ( अछूत) भी बना दिया गया। इनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार करने की व्यवस्था को जन्म दिया गया जिसकी वजह से हिन्दू दर्शन में कहे गये सभी बड़े-बड़े मानवतावादी आख्यान धराशायी हो गये और हिन्दू समाज अपने अतर्विरोधों से इस तरह जकड़ गया कि 1932 तक आते-आते बाबा साहेब अम्बेडकर ने कथित शूद्र समाज के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग कर दी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी समेत देश के विभिन्न भागों के सामाजिक चिन्तक नेताओं ने इस समस्या की गंभीरता का बहुत गहराई से संज्ञान लिया जिनमें दक्षिण के रामास्वामी नायकर 'पेरियार' भी शामिल थे। महात्मा गांधी ने 1932 में ही बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ पूना में समझौता करके तय किया कि कथित शूद्र कहे जाने वाले लोग हिन्दू समाज का ही अंग बने रहें और सत्ता व प्रशासन में अन्य जातियों के लोगों के समान ही सम्मान पायें। बापू ने समझौता किया कि इस वर्ग के लोगों को समूची निर्वाचन प्रणाली में आरक्षण दिया जायेगा जिससे सीधे सत्ता के आसनों पर उनका भी वर्चस्व बने और परिणामस्वरूप उनका सामाजिक-आर्थिक उत्थान सुनिश्चित हो। इसके बाद बापू ने अस्पर्श्यता समाप्त करने और दलितोत्थान का राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाया और इस वर्ग के लोगों को 'हरिजन' नाम देकर उनके धार्मिक व सामाजिक अधिकारों की लड़ाई का बीड़ा उठाया और खुद हरिजन बस्तियों में रहने का फैसला किया। महात्मा गांधी ने यह कार्य 1932 के बाद लगातार कई वर्षों तक किया और अपने इस आन्दोलन को आजादी के आन्दोलन के समकक्ष ही रखा। इस दौरान उन पर कई जानलेवा हमले भी हुए। संपादकीय :धरती पर महाविनाश का खतराएक और श्रद्धा कांडत्रिपुरा के त्रिकोणीय चुनावचीन की खतरनाक चालमहापौर चुनाव पर कशमकशनये राज्यपालों की नियुक्तियह इतिहास आज की पीढ़ी को इसलिए जानना जरूरी है जिससे वे आरक्षण का महत्व भारत की धरातलीय परिस्थितियों के सन्दर्भ में समझ सकें और शिक्षण संस्थानों से लेकर नौकरियों व चुनावों में अनुसूचित जातियों व जन जातियों के लिए किये गये संवैधानिक आरक्षण का औचित्य जान सकें। यह आरक्षण लगातार जारी रखना पड़ेगा क्योंकि हजारों वर्षों तक ढहाये जुल्म की भरपाई केवल 75 या कुछ और वर्षों से नहीं हो सकती है। बाबा साहेब अम्बेडकर भी संविधान में आरक्षण की व्यवस्था इसीलिए कर पाये क्योंकि 1932 में महात्मा गांधी ने उन्हें इसका आश्वासन दिया था और डा. अम्बेडकर को संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष भी महात्मा गांधी की जिद पर ही बनाया गया था। मगर आजादी के 75 वर्ष बाद भी अगर मुम्बई के आईआईटी संस्थान के प्रथम वर्ष के अनुसूचित जाति या जनजाति वर्ग के छात्र दर्शन सोलंकी को इसलिए आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है कि उसके साथ जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता था तो हमारी अब तक की गई सारी भौतिक तरक्की व्यर्थ है। यदि विश्व प्रतिष्ठित आईआईटी जैसे संस्थान के भीतर दूसरी कथित उच्च जातियों के छात्रों का व्यवहार उसके साथ मनुष्यवत नहीं रहता है तो विज्ञान की पढ़ाई का भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि विज्ञान का लक्ष्य केवल मानवता की सेवा करना ही होता है। दर्शन सोलंकी को यदि उसके कुछ सहपाठी छात्र यह कह कर ताना मारते थे कि वह दलित होने की वजह से मुफ्त में पढ़ाई कर रहा है जबकि उन्हें मोटी फीस देनी पड़ती है तो वे केवल भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को कायम करने वाले संविधान की ही धज्जियां उड़ा रहे हैं क्योंकि भारत के संविधान का मुख्य आधार भी मानवता है। विकास केवल भौतिक क्षेत्र का ही नाम नहीं है क्योंकि यह विकास स्वयं मानसिक व बौद्धिक विकास पर निर्भर करता है। भारत तो उन भगवान महावीर का भी देश है जिन्होंने जैन मत में हिंसा के भी तीन स्वरूप बताये हैं-शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक। अतः नई पीढ़ी विचार करे और सोचे कि किसी सहपाठी की जाति को लेकर उसे मिले संरक्षण का विरोध करने से क्या उनका मनुष्यत्व आहत नहीं होता है। कोई भी व्यक्ति ईश्वर के यहां प्रार्थना लगा कर नहीं आता कि उसका जन्म किस जाति या किस मजहब में हो। इस संसार में तो वह केवल एक मानव के रूप में ही आता है। उसे छोटा-बड़ा या ऊंचा-नीचा तो समाज की रूढि़यां बनाती हैं और ये रूढि़यां समाज पर अपना दबदबा कायम रखने की गरज से ही कुछ लोगों ने बनाई हैं। इन्हीं रूढि़यों को तोड़ने का नाम तो विकास या आधुनिकता अथवा आगे बढ़ना है।
क्रेडिट : punjabkesari.com