सम्पादकीय

Caste Census In Bihar : नीतीश कुमार के जातिगत जनगणना की जिद से क्यों बिहार का भला कम और नुकसान ज्यादा होगा

Rani Sahu
20 May 2022 11:50 AM GMT
Caste Census In Bihar : नीतीश कुमार के जातिगत जनगणना की जिद से क्यों बिहार का भला कम और नुकसान ज्यादा होगा
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बिहार (Bihar) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने एक बार फिर से जातिगत जनगणना (Caste Census) का राग अलापना शुरू कर दिया है

अजय झा |

बिहार (Bihar) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने एक बार फिर से जातिगत जनगणना (Caste Census) का राग अलापना शुरू कर दिया है. अभी हाल ही में नीतीश कुमार ने घोषणा की कि शीघ्र ही इस विषय में चर्चा करने के लिए वह एक सर्वदलीय बैठक बुलाएंगे और फिर कैबिनेट से मंजूरी के बाद इसे अमलीजामा पहनाया जाएगा. अभी इस बात कि पुष्टि नहीं हुई है कि क्या बिहार सरकार अपने स्तर पर जातिगत जनगणना करवाएगी या एक बार फिर से केंद्र सरकार से इसकी गुहार लगाएगी. पिछले वर्ष 23 अगस्त को एक सर्वदलीय टीम के साथ नीतीश कुमार इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिले थे. जैसी की उम्मीद थी, केंद्र सरकार ने उनकी इस मांग को ठुकरा दिया. वैसे भी 2021 में होने वाले जनगणना प्रक्रिया की अभी तक शुरुआत नहीं हुई है. भारत में हर 10 वर्षों में जनगणना करने की प्रथा अंग्रेजों के ज़माने से चली आ रही है. आखिरी बार अधिकारिक जनगणना 2011 में हुई थी. 2021 में होने वाले जनगणना को कोरोना महामारी के कारण टाल दिया गया था. 2011 में भारत की जनसंख्या 121 करोड़ से थोड़ी अधिक थी जो अनुमानों के अनुसार अब बढ़ कर 140 करोड़ से अधिक हो चुकी है
भारत में पहली बार जनगणना 1882 में हुई थी और आखिरी बार जातिगत जनगणना 1931 में हुई थी. आज़ादी के बाद अब तक 11 बार जनगणना हो चुकी है, पर कभी भी जातिगत जनगणना नहीं की गयी. 1968 में केरल सरकार ने भारत में पहली और आखिरी बार जातिगत जनगणना करवाई थी जिसे सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का नाम दिया गया था. 2011 के जनगणना के पूर्व मनमोहन सिंह सरकार पर उनके सहयोगी दलों ने जातिगत जनगणना का दबाब डाला. सरकार उनके रहमोकरम पर चल रही थी. जनगणना में लोगों से उनकी जाति के बारे में जानकारी इकट्ठा की गयी पर अधिकारिक तौर पर कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं, इसकी घोषणा नहीं की गयी. कारण था आशंका कि लोगों ने जानबूझ कर गलत जानकारी दी है. चूंकि जनगणना में जाति प्रमाणपत्र नहीं मांगी गयी थी, आशंका जताई गयी कि अग्रिम जाति के लोगों ने जानबूझ कर अपने को पिछड़ी जाति का बताया, इस उम्मीद में कि शायद इस कदम से उनके लिए पिछड़ी जाति के लोगों के लिए तय सरकारी नौकरी के रिजर्वेशन का दरवाज़ा खुल जाएगा. जनगणना अधिकारी अगर जाति का प्रमाणपत्र मांगने लगे तो फिर एक जनगणना करने के लिए शायद 10 वर्ष का समय भी कम पड़ेगा.
मैं भी हो चुका हूं इसका शिकार
केंद्र सरकार तो नीतीश कुमार की मांग मानने से रही, पर अगर वह चाहें तो अपने प्रदेश में जातिगत जनगणना करवा सकते हैं. राज्य सरकार पर कोई भी सर्वेक्षण करवाने की कोई संवैधानिक पाबन्दी नहीं है. पर सवाल यही है कि क्या फिर से लोग जानबूझ कर गलत जानकारी नहीं देंगे और उससे भी बड़ा सवाल है कि आखिर नीतीश कुमार क्यों जातिगत जनगणना करवाना चाहते हैं? अगर सही जानकारी मिल भी जाये तो इससे किसका और क्या फायदा होगा? इससे आम जनता को शायद फायदा ना हो, पर नीतीश कुमार सरीखे नेताओं का फायदा जरूर होगा. बिहार का समाज एक ज़माने से जातिगत आधार पर बुरी तरह से बंटा हुआ है. 1977 में जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने तो यकायक पिछड़ी जातियों को ऐसा लगने लगा कि सत्ता उनके हाथों में आ गयी है. सत्ता हाथ में आना एक बात है और कानून व्यवस्था को अपने हाथों में लेना अलग. बेवजह कुछ लोगों ने कहीं भी अग्रिम जाति के लोगों पर हमला करना शुरू कर दिया, जिसका एक भुक्तभोगी मैं भी था.
पटना से लगे दानापुर के एक कॉलेज में मैंने स्नातक करने के लिए दाखिला लिया था. उस शहर में मैं नया नया था. एक दिन क्लास के बाद जैसे ही मैं अपने स्कूटर की तरफ बढ़ा, अचानक 10-15 लोगों के एक समूह ने मुझे घेर लिया और घूसों तथा तमाचों की बरसात शुरू कर दी. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पता, वह अपना काम करके जा चुके थे. मैं जमीन पर पड़ा पड़ा सोचता रहा कि आखिर एक नए शहर और नए कॉलेज में, जहां मैं किसी को जानता भी नहीं था, मैंने ऐसा क्या कर दिया कि मेरा स्वागत वहां घूंसों और थप्पड़ों से हुआ. खैर मैंने कॉलेज जाना नहीं छोड़ा और एक दो दिनों के बाद मुझे इसका जवाब भी मिल गया कि मेरा गुनाह सिर्फ इतना ही था कि मैं अग्रिम जाति से था और मुझ पर हमला करने वाले पिछड़ी जाति से थे. सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा नहीं हुआ था. पूरे बिहार में सब जगह और सार्वजानिक जगहों पर ऐसा हो रहा था. माना कि पिछड़ी जातियों के लोगों के साथ पूर्व में काफी भेदभाव हुआ था, पर मुझ जैसे अनभिज्ञ युवा जिन्हें जाति से कुछ लेना देना नहीं था, कि पिटाई करके किसी को क्या मिला यह मुझे आज तक समझ में नहीं आया.
नीतीश कुमार कि अगर बात करें तो भले ही उनकी ख्याति एक विकास पुरुष के रूप में रही हो, पर यह चर्चा का विषय जरूर हो सकता है कि उनके लम्बे राजकाज में बिहार का विकास क्या हुआ. बिहार में एक भी नया उद्योग नहीं लगा और नौकरी के अवसर के आभाव में आज भी बिहार से दूसरे राज्यों में रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में युवा वर्ग का पलायन जारी है. पर इस बात में कोई विवाद नहीं हो सकता कि नीतीश कुमार की एक उपलब्धि है दलितों में फूट डालना. दलित से अति-दलित का एक नया वर्ग उन्होंने चुनावी राजनीति के तहत पैदा कर दिया और बिहार के समाज को बांटने कि कोशिश की, जबकि बिहार के मतदाताओं ने अब जातिगत आधार पर वोट डालना छोड़ दिया है. अगर ऐसा होता तो नीतीश कुमार के जनता दल-यूनाइटेड की 2020 के विधानसभा चुनाव में इतनी खस्ता हालत नहीं हुई होती. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री इसलिए ही बने हुए हैं क्योकि बीजेपी को फ़िलहाल उनकी जरूरत है.
भूरा बाल वाली कहानी अब पुरानी हो गई
नीतीश कुमार को जातिगत जनगणना में बिहार के प्रमुख विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का समर्थन प्राप्त है. हो भी क्यों ना, आरजेडी वही पार्टी है जिसके अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने अपने मुख्यमंत्री काल में बिहार के समाज से भूरा बाल निकालने की बात की थी. भूरा बाल से उनका मतलब था भू यानि भूमिहार, रा से राजपूत, बा से ब्राह्मण और ल से लाला (कायस्थ). ये चारों अग्रिम जातियों में गिने जाते हैं. लालू बिहार से भूरा बाल तो नहीं निकाल पाए, खुद उनकी पार्टी सत्ता गवां बैठी. अब उनके पुत्र और राजनीतिक उत्तराधिकारी तेजश्वी यादव बिहार की जनता को पुरानी बातें भुलाने का आग्रह करते दिखते हैं, पर जातिगत जनगणना की मांग में नीतीश कुमार के साथ अग्रणी पंक्ति में खड़े दिखते हैं. अब तेजश्वी यादव ही जाने कि कैसे बिहार की जनता उनके इस दावे पर विश्वास करे कि आरजेडी अब जातिगत राजनीति नहीं करती.
अगर नीतीश कुमार सरकार अपने जिद पर अड़ी रही और अपने स्तर पर जातिगत जनगणना करवाए भी तो इसका परिणाम क्या होगा, इस बारे में सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. चूंकि नीतीश कुमार की लोकप्रियता में भरी गिरावट हुई है, सम्भावना यही है कि सरकार के पास जब जातिगत आंकड़ा आ जायेगा तो फिर उन्हें इसका पता होगा कि किस मोहल्ले और किस टोली के किस जाति के कितने लोग रहते हैं, कौन उनके लिए वोट करता है और कौन नहीं. इस स्थिति में इस बात कि प्रबल सम्भावना है कि सरकार सिर्फ उन्ही मोहल्लों या टोलियों के विकास के बारे में सोचेगी जहां जनता दल-यूनाइटेड संभावित मतदाता रहते हैं, और जो नीतीश कुमार के समर्थक नहीं है, उन्हें विकास परियोंजाओं से वंचित रखा जाएगा.
अब कौन नीतीश कुमार को समझाए कि जातिगत जनगणना से बिहार का भला कम और नुकसान ज्यादा होगा. भगवान ही उनका भला करे अगर उनकी सोच यही है कि जातिगत जनगणना से ही उनकी डूबती हुई लोकप्रियता में इजाफा होगा. अगर बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना करवाने कि घोषणा की तो जरूरत है कि इसके खिलाफ हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी जाए ताकि समाज के विकास के नाम पर समाज को तोड़ने की कोशिश को नाकाम किया जा सके.
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