सम्पादकीय

बिहार में जातिगत जनगणना

Subhi
6 Jun 2022 3:54 AM GMT
बिहार में जातिगत जनगणना
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बिहार में जनता दल और भाजपा की मिली जुली नीतीश कुमार सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का जो फैसला लिया है वह बिहार की जाति वर्ग राजनीति को देखते हुए वाजिब कहा जा सकता है

आदित्य चोपड़ा; बिहार में जनता दल और भाजपा की मिली जुली नीतीश कुमार सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का जो फैसला लिया है वह बिहार की जाति वर्ग राजनीति को देखते हुए वाजिब कहा जा सकता है परंतु पूरे भारत के लिए यह नीति इसलिए उचित नहीं कही जा सकती क्योंकि भारत के विभिन्न राज्यों की विविधता पूर्ण सांस्कृतिक परिस्थितियों को देखते हुए जातिगत संरचना भी वैविध्य पूर्ण है। नीतीश बाबू की जिद ​कि जातिगत जनगणना होनी ही चाहिए। वास्तव में भारत के समाज को आगे ले जाने का कदम नहीं है। बल्कि उसे पीछे मोड़ने का कदम है। मूल रूप से वह 1974 में शुरू हुए जयप्रकाश नारायण आंदोलन की उपज समझे जाते हैं जिसका मूल मंत्र उस समय समतामूलक समाज संपूर्ण क्रांति के अंतर्गत था। हालांकि जयप्रकाश नारायण का दिया हुआ संपूर्ण क्रांति का नारा बाद में खोखला और सही नहीं साबित हुआ परंतु जाति संचेतना का उदय स्वतंत्र भारत में इसी आंदोलन के दौरान हमने देखा। जेपी के साथ रामविलास पासवान से लेकर लालू प्रसाद यादव नीतीश कुमार शरद यादव जैसे नेता थे और इन सब के प्रेरणा स्रोत उस दौर में लोक दल के प्रमुख स्वर्गीय प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह थे। हालांकि चौधरी साहब जातिवाद के कट्टर विरोधी थे और दिल से सच्चे आर्यसमाजी थे। किंतु ग्रामीण जातियों की एकता के वह भी समर्थक थे। जहां तक जाति जनगणना का प्रश्न है तो यह भारत के विभिन्न जातियों में बटे समाज को देखते हुए व्यावहारिक कदम इस वजह से नहीं कहा जा सकता क्योंकि इससे जातियों की आपसी रंजिश को और बढ़ावा मिल सकता है। समतामूलक समाज का अर्थ यह है की जाति विहीन समाज की स्थापना हो और समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्थान उसकी योग्यता के अनुसार तय हो परंतु लोकतंत्र में जाति को प्रधान बना कर राजनीति करने का जो गुर स्वर्गीय प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने केवल 11 महीने के शासनकाल में इस देश को सिखाया उससे नहीं चिड़ियों का नुकसान ज्यादा हुआ है और लाभ कम। कहने को तो वीपी सिंह ने 1989 में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करते भारत में पिछड़े वर्गों के लिए पृथक आरक्षण की व्यवस्था सरकारी नौकरियों में की मगर यह कदम पूर्ण रूप से राजनीति को कंदरा करने वाला साबित हुआ क्योंकि इसके बाद भारत की राजनीति सिद्धांत के बजाय जाति पर चलने लगी और कथित जातियां सत्ता में अपनी भागीदारी के लिए अन्य जातियों को ही अपना बैल भी मानने लगी। इससे समाज में समरसता आने के बजाएं द्वेष को बढ़ावा मिला और भारतीय समाज में पहले की अपेक्षा अधिक कटुता बढ़ी। विरोधाभास यह है कि जिस बिहार में आज जाति जनगणना का फैसला किया गया है उसी बिहार से सबसे पहले स्वतंत्र भारत में जाति विहीन समाज की संरचना करते हुए समतामूलक व्यवस्था कायम करने की मांग में समाजवादी और साम्यवादी पार्टियों द्वारा की गई परंतु 1989 में मंडल आयोग के लागू होने के बाद यह जाति पर विकास की परिकल्पना पूरे देश में जिसका विरोध भी हुआ। परंतु इस विरोध को शहर की मानसिकता का परिचायक माना गया और इसको संभ्रांत वर्ग से जोड़ दिया गया जो उचित नहीं था। भारत में अंतिम जातिगत जनगणना 1931 में ब्रिटिश सरकार ने कराई थी। अंग्रेजों ने भारतीयों में जातिवाद को समाप्त करने के लिए कोई कोशिश नहीं की बल्कि इसकी जड़ें और जमाने में मदद की और इसका लाभ अपने शासन को भारत में मजबूत बनाने के लिए किया। जातियों के आधार पर उन्होंने फौज में रेजीमेंट गठित किए और भारत की जातियों को लड़ाकू व दूसरे वर्गों में बांटा। प्रसिद्ध है हम जिस लोकतंत्र में आज जी रहे हैं उसमें मतदाताओं की सबसे बड़ी भूमिका होती है। इन मतदाताओं को अगर हम जातियों में गोलबंद कर देते हैं दो लोकतंत्र के उस पवित्र गेट कोट के अधिकार को किसी सामंती समूह में गठित करने का प्रयास करते हैं जिसकी तरफ 26 नवंबर, 1949 को डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने तब ध्यान दिलाया था जब वह अपने लिखे गए संविधान को भारत की संविधान सभा को सौंप रहे थे। डॉक्टर अंबेडकर ने चेताया था 30 संविधान के बाद हमने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है मगर आर्थिक स्वतंत्रता अभी बाकी है और इसे पाने के लिए मताधिकार का प्रयोग मतदाता के बीच की सत्ता और योग्यता आधार स्थापित की जा सकती है। यह बहुत गंभीर विषय है जिस पर सभी राजनीतिक दलों को विचार करना होगा। संपादकीय :कोरोना में उलझ गई गणित की शिक्षाकश्मीरियों को आगे आना होगा...कश्मीर : जय महाकाल बोलो रेराज्यसभा चुनावों का चक्रव्यूहबाबा के बुल्डोजर का कमालसंघ प्रमुख का 'ज्ञान- सन्देश'संविधान में जाति विहीन समाज की संरचना पर जोर दिया है जातियों की जनगणना करके आजाद भारत में क्या हम जातियों की जड़ें समाज में और गहरी करने में मदद नहीं करेंगे। असल में यह पूरी तरह प्रतिगामी कदम है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसका समर्थन प्रगतिशील कही जाने वाली पार्टियां करती हैं। यह पार्टियां यथास्थिति को बरकरार रखना चाहती हैं इसीलिए जातिगत जनगणना आगे की तरफ उठाया गया कदम नहीं बल्कि पीछे की तरफ मोड़ा गया कदम है। हमें यह वैज्ञानिक रूप से समझने की जरूरत है।

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