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उत्तराखंड में चंपावत जिले के एक स्कूल में अनुसूचित जाति की महिला के हाथों बना खाना खाने से कुछ बच्चों के इनकार से उपजे विवाद ने एक बार फिर भारतीय समाज की एक तकलीफदेह जटिलता की ओर ध्यान दिलाया है।
उत्तराखंड में चंपावत जिले के एक स्कूल में अनुसूचित जाति की महिला के हाथों बना खाना खाने से कुछ बच्चों के इनकार से उपजे विवाद ने एक बार फिर भारतीय समाज की एक तकलीफदेह जटिलता की ओर ध्यान दिलाया है। इससे ज्यादा दुखद और क्या होगा कि जिस उम्र में छोटे बच्चे बिना किसी भेदभाव के एक साथ पढ़ते-लिखते, खेलते-कूदते और मिलजुल कर रहते हैं, उसमें चंपावत में सूखीढांग के एक स्कूल में कुछ बच्चों ने जाति के आधार पर बर्ताव करना शुरू कर दिया।
कुछ दिन पहले स्कूल में कथित उच्च जातियों के बच्चों ने सिर्फ इसलिए खाना खाने से मना कर दिया कि उसे बनाने वाली महिला अनुसूचित जाति से थीं। इसके बाद इस मसले पर हंगामा मचा और दलित 'भोजन माता' को हटा कर उच्च कही जाने वाली जाति की महिला को बहाल किया गया। इसकी प्रतिक्रिया में दलित बच्चों ने भी खाना खाने से मना कर दिया और वे अपने घर से भोजन लाने लगे। जाहिर है, यह एक बेहद अप्रिय स्थिति थी, जिसमें बच्चों को जातिगत व्यवहार का मोहरा बनना पड़ा।
स्वाभाविक ही हर जगह इस प्रकरण पर चिंता जाहिर की गई। बात शिक्षा विभाग के उच्चाधिकारियों तक पहुंची और इसे नियुक्ति प्रक्रिया में गड़बड़ी बता कर तात्कालिक समाधान यह निकाला गया कि बाद में नियुक्त 'भोजन माता' ने खाना बनाया और सभी बच्चों ने साथ खाया। अब नियुक्ति प्रक्रिया में हुई गड़बड़ी की जांच का आदेश दिया गया है।
सवाल है कि क्या यह मसला केवल बहाली में प्रक्रियागत खामियों तक सीमित है? अगर समुचित प्रक्रिया के तहत दलित महिला की नियुक्ति हुई होती, तब क्या वहां कथित ऊंची जाति के बच्चों का बर्ताव अलग होता? जीवन के जिस चरण में बच्चों को जाति-धर्म की हर दीवार से ऊपर मनुष्यता की उम्मीद की तरह देखा-जाना जाता है, उसमें उनके भीतर जाति के आधार पर किसी को ऊंच-नीच मान कर उसके हाथों से बना खाना नहीं खाने की बात कैसे और कहां से आई? इसकी प्रतिक्रिया में दलित बच्चों ने भी ऐसा किया तो उस पर सवाल उठेंगे, लेकिन जाति के आधार पर ऊंच-नीच बरतने वाले क्या इसे अच्छी परंपरा के तौर पर देख सकेंगे?
यह कोई अकेली ऐसी घटना नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों से अक्सर ऐसे मामले सामने आते रहे हैं जिनमें कुछ खास जातियों के बच्चों की ओर से मध्याह्न भोजन से इनकार करने की वजह दलित तबके की किसी महिला के हाथों बना खाना होता है। यह मानना मुश्किल है कि बच्चे अपने स्तर पर इस तरह का कोई फैसला करते हैं। उनके घर-परिवार और आसपास के माहौल में होने वाला उनका सामाजिक प्रशिक्षण इसके लिए जिम्मेदार होता है, जिसमें जाति के आधार पर उनकी मानसिकता और व्यवहार का निर्धारण किया जाता है।
इससे अफसोसनाक और क्या होगा कि एक ओर हमारा समाज ऊंचे मानवीय मूल्यों और बराबरी की बात करता है और दूसरी ओर जाति और हैसियत के मुताबिक अपने बच्चों तक के भीतर इस स्तर की निम्न भावना भरता है। जिन्हें निम्न और हेय माना जाता है, उस तबके और उनके बच्चों को ऐसे बर्ताव से कैसा महसूस होता होगा? सरकार और प्रशासन अपने स्तर पर ऐसे मामलों से संवैधानिक संदर्भ के मुताबिक निपटे, लेकिन देश के सामाजिक रूप से समर्थ माने जाने वाले तबकों को ऐसे आग्रहों पर विचार करने की जरूरत है जो न केवल उन्हें और उनके बच्चों को अमानवीय मानसिकता का शिकार बनाते हैं, बल्कि समूचे समाज में बहुपरतीय व्यवस्था का निर्माण करते हैं, जिसकी मार आखिरकार कमजोर तबकों पर पड़ती है।
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