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जातिवार जनगणना के मुद्दे पर जब बिहार के सत्तारूढ़ और विपक्षी दल एक साथ खड़े दिखे, तो कई लोगों को हैरानी हुई |
जातिवार जनगणना के मुद्दे पर जब बिहार के सत्तारूढ़ और विपक्षी दल एक साथ खड़े दिखे, तो कई लोगों को हैरानी हुई। खासकर कट्टर प्रतिद्वंद्वी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव का एक साथ खड़े होना सुर्खी बना गया। मगर राजनीति में जब जनाधार जीतने का सवाल हो, तो राजनीतिक दलों का इस तरह साथ खड़ा होना हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। यों भी राजनीति में कोई किसी का स्थायी दुश्मन नहीं होता।
बिहार में जाति एक ऐसा पहलू है, जिस पर सिद्धांतों की बात करने वाले अच्छे-खासे राजनीतिक दलों का आसन भी डोल जाता है। बिहार ही क्यों, उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्य भी इस बीमारी से दूर नहीं हैं। इस वर्ष मर्दमशुमारी होनी है। अनेक राजनीतिक पार्टियों की मांग है कि इस बार जाति के आधार पर जनगणना हो। हालांकि पिछली बार भी जातियों के आधार पर गणना हुई थी, मगर उसके आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए, जिसे लेकर वर्तमान केंद्र सरकार के सिर पर ठीकरे फोड़े जाते हैं। इस बार केंद्र सरकार ने स्पष्ट कह दिया है कि जाति के आधार पर जनगणना नहीं होगी। बस, बहुत सारे क्षेत्रीय और विपक्ष में बैठे राष्ट्रीय दलों ने इसे तूल देना शुरू कर दिया। उनका कहना है कि जब तक जाति के आधार पर जनगणना नहीं होगी, तब तक उनके हिस्से का हक दिलाना संभव नहीं हो पाएगा।
हालांकि जातिवार जनगणना की मांग नई नहीं है। लंबे समय से इसकी मांग चली आ रही है। आजादी के पहले की जनगणना को इसके प्रमाण के रूप में नत्थी किया जाता रहा है। पिछली यूपीए सरकार के समय भी इस मांग ने जोर पकड़ा, तो जातिवार जनगणना कराई गई थी। मगर उसके आंकड़े अब तक प्रकाशित नहीं हो पाए हैं। अब तो सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह जातिवार जनगणना के पक्ष में नहीं है। हालांकि कुछ दिनों पहले ही केंद्र सरकार ने संविधान संशोधन करके अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का अधिकार राज्य सरकारों को सौंप दिया। यानी अभी तक इससे जुड़े मामलों पर निर्णय की जो जिम्मेदारी केंद्र पर थी, वह अब राज्यों को मिल गई है। केंद्र अब इस झगड़े से मुक्त है। मगर वही केंद्र सरकार जातिवार जनगणना के खिलाफ क्यों है, यह उसने तार्किक ढंग से स्पष्ट नहीं किया है। चूंकि मर्दमशुमारी केंद्र सरकार की देख-रेख में होनी है, इसलिए स्वाभाविक ही इसके लिए उस पर दबाव बन रहे हैं।
हालांकि यह किसी भी प्रकार से गर्व का विषय नहीं हो सकता कि एक सभ्य और सशक्त लोकतांत्रिक देश की राजनीति अब भी जाति के ईर्द-गिर्द ही घूम रही है। बहुत सारे राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन जाति का बंधन तोड़ने के लिए आंदोलन करते रहते हैं, मगर जैसे ही वोट बैंक बनाने की बात आती है, सब जातीय समीकरण बिठाने में जुट जाते हैं। चुनावों में टिकटों के बंटवारे जाति के आधार पर किए जाते हैं। यह ठीक है कि नौकरियों और दाखिलों में जाति के आधार पर ही पैमाने तय हैं, मगर इस आरक्षण के औचित्य पर भी व्यावहारिक ढंग से सोचने को कोई तैयार नहीं होता। दरअसल, ज्यादातर क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व जाति के आधार पर ही बना और बचा हुआ है, इसलिए वे किसी भी रूप में इस जाल को तोड़ना नहीं चाहते। यहां तक कि राष्ट्रीय दल भी इसके खिलाफ जाकर कोई जोखिम मोल लेने को तैयार नहीं। ऐसे में जाति की जकड़बंदी हमारे देश से निकट भविष्य में खत्म होती नजर नहीं आती।
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