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इस वक्त जब कोरोना की शृंखला तोड़ने के लिए टीकाकरण अभियान में तेजी लाने पर जोर दिया जा रहा है
इस वक्त जब कोरोना की शृंखला तोड़ने के लिए टीकाकरण अभियान में तेजी लाने पर जोर दिया जा रहा है और अपेक्षा की जा रही है कि इसमें चिकित्साकर्मी सक्रिय योगदान देंगे, तब इस मामले में किसी भी तरह की लापरवाही स्वाभाविक रूप से ध्यान खींचती है। पिछले कुछ दिनों से कोरोना की जंग में फिसड्डी साबित होने को लेकर उत्तर प्रदेश पर लगातार अंगुलियां उठती रही हैं। मगर वहां के स्वास्थ्यकर्मी अपने कामकाज के तरीके में सुधार लाने के बजाय जैसे पुरानी रौ में ही चलते रहे हैं।
इसी का ताजा उदाहरण सिद्धार्थनगर के एक टीकाकरण केंद्र पर पहली खुराक में कोविशील्ड लगवा चुके बीस लोगों को दूसरी खुराक के रूप में कोवैक्सीन लगा देने का मामला है। गनीमत है कि इनमें से सभी लोग स्वस्थ हैं, उन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं देखा गया है। मगर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि टीकाकरण केंद्र पर तैनात कर्मचारियों से यह लापरवाही हुई कैसे। पिछले महीने शामली में भी तीन महिलाओं को कोरोना टीके की जगह कुत्ते के काटने पर लगाया जाने वाला एंटी रैबीज टीका लगा दिया गया। तब उस मामले पर लीपापोती करके रफा-दफा कर दिया गया था।
कोरोना का टीका लगवाने के बाद लोगों को एक पर्चा दिया जाता है, जिस पर टीके का विवरण दर्ज होता है। दूसर खुराक लेते वक्त वह पर्चा चिकित्साकर्मियों को दिखाना पड़ता है, ताकि उन्हें अंदाजा लग सके कि पहले उन्होंने कौन-सा टीका लिया था। नियमत: टीके की दोनों खुराक एक ही कंपनी की लेनी होती है। मगर हैरानी की बात है कि सिद्धार्थनगर के जिस केंद्र पर बीस लोगों को अलग टीके लगा दिए गए, उसमें इस बात का ध्यान क्यों नहीं रखा गया। ऐसा नहीं माना जा सकता कि वहां तैनात कर्मियों को टीकाकरण संबंधी नियमों की जानकारी न रही हो।
शामली के मामले में जब तीन महिलाओं को एंटी रैबीज टीका लगा दिया गया, तब प्रशासन ने तर्क दिया था कि महिलाएं गलती से कोरोना के बजाय एंटी रैबीज केंद्र में पहुंच गई होंगी। मगर कोविशील्ड और कोवैक्सीन को लेकर वही तर्क नहीं दिया जा सकता। यह एक सामान्य बात है कि जब भी कोई व्यक्ति टीका लगवाने पहुंचता है तो वहां तैनात कर्मचारी उसका विवरण दर्ज करते हैं। उससे पहली खुराक के बारे में जानकारी लेते हैं। फिर ऐसा कैसे हुआ कि बीस में से एक भी व्यक्ति से ऐसी जानकारी लिए बिना टीकाकरण कर दिया गया।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि सरकारी अस्पतालों, खासकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर जिस तरह स्वास्थ्यकर्मी इलाज वगैरह के मामले में लापरवाही और मानमानी करते देखे जाते हैं, उनकी वही आदत टीकाकरण के मामले में भी प्रकट हुई। ज्यादा संभावना इसी बात की है कि उस केंद्र के स्वास्थ्य कर्मियों ने अपनी तरफ से तर्क गढ़ लिया होगा कि दोनों टीके चूंकि कोरोना के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के लिए ही लगाए जा रहे हैं, तो कोई भी लगा दो, क्या फर्क पड़ता है।
ऐसे ही तर्कों के आधार पर कई जगह पशुओं की दवाइयां आदमियों को देने के मामले भी उजागर हो चुके हैं। कोरोना टीके को लेकर अब भी बहुत सारे ग्रामीण क्षेत्रों, आदिवासी समुदायों आदि में भ्रम की स्थिति है, उससे पार पाने के प्रयास किए जा रहे हैं, ऐसे में कुछ चिकित्सा कर्मियों की मनमानी और लापरवाही इस अभियान में और बाधा खड़ी कर सकता है। हालांकि स्वास्थ्य मंत्रालय ने साफ कर दिया है कि इस तरह गलती से अगर टीकों का मिश्रण हो भी जाए, तो उससे लोगों के स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
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