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कुछ दिनों से वह आगबबूला से रहने लग थे। कोई उनसे व्यवस्था की कमियां गिनाने लगता तो वह उसकी सात पुश्तों की पोथी खोल देते।
भूपेंद्र सिंह | कुछ दिनों से वह आगबबूला से रहने लग थे। कोई उनसे व्यवस्था की कमियां गिनाने लगता तो वह उसकी सात पुश्तों की पोथी खोल देते। मैं उनके इस 'टर्निंग पॉइंट' से हैरत में पड़ गया। भाई साहब ने मुझे फोन पर बताया, 'लेखकीय कार्य में मौज नहीं है। कार्यकर्ता होने में है। लोगों पर नजर रखने में अथाह आनंद की प्राप्ति होती है। मतलब समझ रहे हो न। मैं सरोकार को प्यार करता हूं। कार्यकर्ता होने में बहुत सरोकार हैं।'
कार्यकर्ता की दिव्य आंखें तुरंत ताड़ लेती हैं
भाई साहब अभ्यासवश मुझ पर नजरें गड़ाए हुए थे। खुद ही बोल पड़े, 'विस्तार से बताता हूं। एक महान आदमी था। शायद मैं ही था। खैर, उस महान आदमी ने कभी कहा था-जो बात वाणी नहीं प्रकट कर पाती, आंखें उसे आसानी से बोल देती हैं। ठीक, लेकिन बात अब उससे आगे निकल गई है। कार्यकर्तामयी जीवन में आंखों का उपयोग इससे कहीं अधिक है। सीसीटीवी से भी तगड़ा कैमरा होती हैं कार्यकर्ता की आंखें। जो बात कहीं सुनाई नहीं देती, सीधे-सच्चे आम आदमी को जो दिखाई नहीं देती, कार्यकर्ता की दिव्य आंखें उसे तुरंत ताड़ लेती हैं। ऐसी आंखों की इसी अद्भुत विशेषता के लिए ही ज्ञानीजन एक मुहावरा दे गए हैं-बात का बतंगड़!'
इन आंखों की पहुंच भी दूर तक मार करती है
कार्यकर्ता की आंखों की ऐसी गौरवशाली व्याख्या सुन मेरे माथे पर लकीरें उभर आईं। उन्हें ताड़कर वह भाषण मोड में चालू हो गए, 'भोले हो। अच्छी बात है। भोले लोग कार्यकर्ता के 'सॉफ्ट टार्गेट' होते हैं। अरे, मजाक था भाई। डरो मत। कहने का आशय यह है कि एक कार्यकर्ता के पास दिमाग भले न हो, आंखें अवश्य होनी चाहिए। विशिष्ट आंखें होती हैं ये। इन आंखों की पहुंच भी दूर तक मार करती है। किसी मारक मिसाइल के माफिक। एकदम निशाने पर।'
सीसीटीवी और सेंसर वाली आंखें लोगों को हर समय सर्विलांस पर रखती हैं
भाई साहब ने बोलना जारी रखा, 'कार्यकर्ता बनकर हम सबसे पहले बुद्धि और आंखों को जोड़ने वाले तार की वायरिंग काट देते हैं। आस-पड़ोस और इंटरनेट मीडिया में खाता खोल देते हैं। जो मन में आता वही बोल देते हैं। इस दल के कार्यकर्ता हुए, तो उस दल के खिलाफ बोले। उस दल के हुए, तो इस दल के खिलाफ जहर उगला। कार्यकर्ता की स्पेशल सीसीटीवी और खास सेंसर वाली आंखें लोगों को हर समय सर्विलांस पर रखती हैं। बहुतै मजा आता है यार! उस समय तो अपार आनंद प्राप्त होता है, जब किसी आम आदमी की कोई बात हमारी नजरों में आ जाए। बात चाहे जो कही हो, उसमें यह ढूंढना होता है कि बवाल किस बिंदु पर मचे। बस एक शब्द पकड़ा और बात का बतंगड़ बना। वहीं के वहीं हमला बोल देते हैं।
सरोकारी होकर सरकार के विपक्ष में चले जाते हैं
आदमी चुप। पोस्ट डिलीट। सारी चूं-चपड़ बंद।' इतना कुछ धाराप्रवाह बोलकर भाई साहब ने सांस ली। इतने में मैंने पूछ ही लिया, किंतु आप हमलार्थ आदमी कैसे चुनते हैं? इंटरनेट मीडिया पर तो करोड़ों लोग हैं!' मेरी जिज्ञासा को 'गुड क्वेश्चन' बताते हुए वह बोले, 'देखो हम संभावित टार्गेट पर नजर रखते हैं। मसलन लेखक, कवि, कार्टूनिस्ट, पत्रकार आदि। ये बहुत चपल लोग होते हैं। सरोकारी होकर सरकार के विपक्ष में चले जाते हैं। पिछले दिनों ही एक लेखक को मजा चखाया था। बहुत लिख रहा था कि लाश बह रही हैं, अस्पताल लूट रहे हैं। हमारी व्यवस्था कुछ कर नहीं रही। सिस्टम फेल है। उसकी पोस्ट पर नजर पड़ी तो चुप करा दिया उस नमूने को।'
अस्पताल लूट रहे हैं तो हम क्या करें?
'अच्छा! वह कैसे?' मैंने पूछा। उन्होंने कहा, 'ट्रोल करवा दिया। बताया उसे कि लाश बहेगी ही, चलेगी थोड़ी न। अस्पताल लूट रहे हैं तो हम क्या करें? हां, उनका कारोबार हमसे ऊपर जाएगा तो कूट देंगे। चला था हमें बताने कि आदमी मर रहा है और हम देख नहीं रहे हैं। अरे हमें अच्छी तरह बताया गया है कि क्या देखना है और क्या नहीं।'
सावधान! आप कार्यकर्ता की नजर में हैं
मैंने कहा, 'तो अंतत: लेखक का दिमाग ठिकाने लगा ही दिया आपने।' वह तपाक से बोले, 'सिर्फ दिमाग नहीं रे, उसकी पूरी बॉडी ही ठिकाने लग गई।' यह सुनकर मैं सुन्न हुआ। कुछ देर बाद जेब से फोन निकाला। फेसबुक पर भाई साहब के प्रोफाइल कवर में लिखा था-कार्यकर्ता। मैंने उन्हें तुरंत अमित्र किया। साथ ही कहा, 'भाई साहब! कवर पर मात्र 'कार्यकर्ता' बहुत खाली-खाली लग रहा है। आप वहां और अपने घर के गेट पर पट्टी टांगिए, जिस पर लिखा हो-सावधान! आप कार्यकर्ता की नजर में हैं।'
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