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- कैप्टन का भाजपा में...

आदित्य नारायण चोपड़ा; पंजाब के पूर्व मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह आगामी सोमवार को भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लेंगे। कांग्रेस पार्टी के साथ 45 साल पहले अपना राजनैतिक सफर शुरू करने वाले पटियाला रियासत के पूर्व महाराजा कैप्टन साहब की यह नई राजनैतिक यात्रा उनके राज्य की राजनीति के लिए यह एक नया आयाम होगा क्योंकि पंजाब की प्रमुख प्रभावशाली क्षेत्रीय पार्टी अकाली दल अब मरणासन्न अवस्था में पहुंच चुकी है और एक नई पार्टी आम आदमी पार्टी का यहां उदय हो चुका है जबकि कांग्रेस पार्टी क्षत-विक्षत हालत में 'उलट- बांसिये' गाती हुई लग रही है। कांग्रेस को ऐसी हालत में पहुंचाने के लिए निश्चित रूप से मसखरे राजनीतिज्ञ नवजोत सिंह सिद्धू को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जो पुनः 'ठोको ताली' की मुद्रा में पहुंच चुके हैं। दरअसल पिछले वर्ष राज्य के चुनावों से ठीक पहले जिस तरह कैप्टन साहब को कांग्रेस नेतृत्व ने मुख्यमन्त्री पद से हटा कर श्री चरणजीत सिंह चन्नी को इस पद पर बैठाया था और राज्य कांग्रेस अध्यक्ष की कमान श्री सुनील जाखड़ से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू के हाथ में दी थी वह पंजाब की राजनीति की स्वयं में बहुत बड़ी त्रासदी थी क्योंकि कैप्टन साहब का शासन पंजाब में नई इबारत लिख रहा था और इस राज्य की पिछली अकाली सरकार द्वारा की गई खस्ता आर्थिक हालत को दुरुस्त कर रहा था। परन्तु सिद्धू ने कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही खुद अपनी ही पार्टी कांग्रेस की कैप्टन सरकार को निशाने पर लेना शुरू कर दिया जिसका सर्वाधिक लाभ आम आदमी पार्टी ने ही उठाया। विपक्ष में होते हुए भी भाजपा इसका लाभ इस वजह से नहीं उठा सकी क्योंकि पिछली अकाली सरकार में यह भी अकाली दल के साथ सत्ता में शामिल थी। कैप्टन ने पद से हटाये जाने के बाद चुनावों से पहले अपनी पृथक 'पंजाब लोक कांग्रेस' का गठन किया परन्तु यह चुनावों में कोई कमाल न दिखा सकी और आम आदमी पार्टी की आंधी के आगे उड़ गई। इस आंधी को चलाने में भी सिद्धू की ही प्रमुख भूमिका मानी गई क्योंकि सिद्धू ने नये कांग्रेसी मुख्यमन्त्री चरणजीत सिंह चन्नी को भी किसी करवट सोने नहीं दिया और खुद सत्ताधारी पार्टी का अध्यक्ष होते हुए भी सरकार को निशाने पर लिये रखा। इसका जो परिणाम होना था वही हुआ और कांग्रेस के हाथों से सत्ता निकल कर आम आदमी पार्टी के हाथों में पहुंच गई। किन्तु वर्तमान में राज्य में विपक्षी पार्टी का स्थान खाली पड़ा हुआ है क्योंकि कांग्रेस सत्ता से बेदखल होकर निर्जीव अवस्था में पहुंच चुकी है और श्री सुनील जाखड़ पहले ही भाजपा में शामिल हो चुके हैं। राज्य में जाखड़ व कैप्टन की जोड़ी सत्ता में रहते हुए शानदार काम कर रही थी और जनता के बीच सरकार व कांग्रेस पार्टी दोनों की ही साख को कायम रखे हुए थी। अब यह जोड़ी भाजपा में शामिल होकर राज्य की विपक्षी राजनीति को नया आयाम दे सकती है और भाजपा को पंजाब की राजनीति का ध्रुव केन्द्र बना सकती है। कैप्टन साहब बेशक पिछला विधानसभा चुनाव हार गये हों मगर राज्य में उनकी एक कुशल शासक के रूप में छवि बरकरार है और श्री सुनील जाखड़ भी एक कुशल संगठक माने जाते हैं। वास्तव में भाजपा की झोली में यह अवसर स्वयं ही आ गिरा है क्योंकि 1967 के बाद से पंजाब में जनसंघ (भाजपा) का कोई नेतृत्व ही नहीं उभर सका है। 1967 में जब पहली बार अकाली जनसंघ गठजोड़ बना था तो इसके पास स्व. बलराम जी दास टंडन व कृष्ण लाल शर्मा जैसे प्रतिष्ठित नेता थे और 'स्व. वीर यज्ञदत्त शर्मा' जैसे तपस्वी प्रचारक थे। पहली अकाली-जनसंघ गुरुनाम सिंह सरकार में श्री टंडन को उद्योग मन्त्री बनाया गया था, स्व. शर्मा को वित्तमन्त्री बनाया गया था। बलराम जी दास टंडन बाद में 1969 में ऐसी ही अल्पकालिक गठजोड़ सरकार में उप मुख्यमन्त्री भी रहे मगर कृष्ण लाल शर्मा की मृत्यु हो जाने के बाद स्व. टंडन का आज तक भाजपा में कोई स्थानापन्न नेता नहीं मिल सका जिसकी वजह से यह पार्टी पंजाब में लावारिस जैसी ही स्थिति में होती गई। हालांकि बाद में वृद्ध हो जाने की वजह से श्री टंडन को छत्तीसगढ़ का राज्यपाल बना दिया गया था जिनकी 2018 में पदासीन रहते हुए ही मृत्यु हो गई।संपादकीय :प्रियजनों की विदाई और श्राद्धसमरकंद में मोदी की दो टूकलखीमपुर में 'दलित' हत्यानामीबिया के मेहमानों का स्वागतक्षेत्रीय भाषाओं की 'सखी' हिन्दीसमरकंद : कूटनीति की शतरंजअब स्थिति यह है कि कैप्टन साहब भाजपा के लिए वरदान स्वरूप साबित हो सकते हैं, बशर्ते पार्टी नेतृत्व इनका सदुपयोग करे और इनकी अगवानी में अपनी खोई शक्ति को समेटे। कैप्टन साहब में इतनी क्षमता है कि वह राज्य में हिन्दू-सिख एकता की नई इबारत लिख सकें क्योंकि भाजपा का वोट बैंक मूलतः पंजाबी मौने मतदाता ही रहे हैं। अकाली दल के रसातल में जाने की वजह से कैप्टन साहब सिख व मौने दोनों ही मतदाता वर्गों में लोकप्रियता की नई कहानी लिख कर राज्य की राजनीति में ऐसी नई शुरूआत कर सकते हैं जिसमें पंजाबियत का पुट ही शीर्ष पर नजर आये। गौर से देखें तो पंजाब की पहचान भी पंजाबियत ही है। गुरुओं की इस धरती पर केवल किसी भी व्यक्ति को सबसे पहले इंसान होना ही सिखाया जाता है और मेहनत उसका धर्म बताया जाता है। यह धरती तो एेसी धरती है जहां से यही शब्द गूंजता रहा है। ''तू 'समरथ' बड़ा मेरी 'मत' थोड़ी राम मैं पा लियो 'किरत' कड़ा 'पूरन' सब मेरे काम।''