सम्पादकीय

टोपियां!

Rani Sahu
11 Aug 2022 6:57 PM GMT
टोपियां!
x
चार माह पूर्व ही मैं सेवानिवृत्त हुआ हूँ। एक दिन पत्नी ने कहा-‘घर में पड़े-पड़े पेट बढ़ाने से तो अच्छा है
By: divyahimachal
चार माह पूर्व ही मैं सेवानिवृत्त हुआ हूँ। एक दिन पत्नी ने कहा-'घर में पड़े-पड़े पेट बढ़ाने से तो अच्छा है आप सार्वजनिक जीवन में चले जाएं।' मैंने कहा -'वहां मुझे कौन पूछेगा। सार्वजनिक जीवन बहुत मेहनत मांगता है और मेहनत अब मुझसे होती नहीं। अब तो पड़े रहने का ही मन बना रहता है।' पत्नी ने कहा -'थोड़ा उठो, नजर फैलाओ, थोड़ी मेहनत में ज्यादा कमा लाओगे। पेंशन से बंटता क्या है?' मैं बोला -'तुम्हीं बताओ कैसे-क्या करूं? तुम जिद कर रही हो तो मैं वह भी कर लूंगा।' पत्नी मेरी बात से आश्वस्त सी हुई और बोली-'चलो बाजार में, पहले मैं आपको कोई अच्छी सी टोपी दिला लाऊं।' मैंने कहा-'टोपी नहीं, ठंडा मौसम है टोपा दिला दो तो शीतलहर से बचा रहूंगा।' पत्नी ने थोड़ी डांट के साथ कहा -'धंधे की बात है। फालतू बातें तो करो मत। टोपा पहनकर संन्यासी बनोगे क्या? संन्यासी बन गए तो इस परिवार को कौन संभालेगा। चलो मैं आप को टोपी दिलवाती हूँ।' मैं उसके साथ बाजार में टोपी वाली दुकान पर आ गया। पत्नी ने दुकानदार से कहा -'भैया, कोई बढिय़ा सी टोपी दे दो। वही देना जो आजकल सब से ज्यादा चल रही हो।' दुकानदार बोला -'बहन जी, आप किस परपज से टोपी चाहती हैं। मेरा मतलब किसी पार्टी को बिलोंग करती हो, तो वैसी दिखाऊं। बाजार में टोपियों की भरमार है।' यह कहकर दुकानदार ने टोपियां फैला दीं। रंग-बिरंगी टोपियां देखकर आंखें और सिर दोनों चकरा गए। समझ में नहीं आया कि कौनसी टोपी ली जाए। 'भैया हम तो अभी निर्दलीय हैं। कोई ऐसी टोपी देवो, जो चल निकले।' दुकानदार बोला -'पहले यह बताओ टोपी स्वयं के लिए लेनी है या किसी को पहनानी है?' इस बार मैं बोला -'देखो भाई मैं किसी को क्या टोपी पहनाऊंगा, परसों इनका (पत्नी का) भाई मुझे पचास हजार की टोपी पहना गया है। इसलिए भैया टोपी ढंग की चलताऊ दिखाओ। इस ढेर में तो कुछ समझ में नहीं आ रहा।' फिर मैंने एक टोपी उठाकर उसी से पूछा-'ये कैसी रहेगी।' दुकानदार बोला -'सर, यह तो आउट ऑफ डेट हो गई। ये गांधी-नेहरू पहना करते थे।' उसने एक टोपी उठाकर कहा-'आप यह वाली ले जाइये। ये फैशन में भी है और चल भी रही है।
आपको ईमानदारी का तो शौक है न?' मैंने पत्नी को देखा, वह हंसी। मैंने मन में कहा -'पूरी जिंदगी सरकारी नौकरी में रिश्वत से काम चलाता रहा और अब ईमानदारी का ढोंग, यह मुझसे नहीं होगा।' दुकानदार बोला -'क्या सोचने लगे सर, जंची नहीं। यह आम आदमी की टोपी है। चलो आप फिर यह ले लो।' उसने लाल रंग की टोपी दिखाई। मैंने कहा-'इसकी क्या विशेषता है।' वह बोला -'यह समतावादी लोग पहनते हैं। इसमें ईमानदार रहना कोई जरूरी नहीं। इसमें जैसी हवा, वैसा रुख किया जा सकता है।' मैं बोला -'और यह केसरिया?' 'यह ढोंगियों की है। इसमें भी कई सुविधाएं हैं। भगवा पहनकर आराम से चाहो तो राजनीति कर लो। सुना है, अब की बार इसका ही नम्बर है। इसमें भी ईमानदारी का लफड़ा नहीं है।' मैंने फिर पत्नी को देखा, पत्नी बोली -'यही ले लो। यह चलन में भी है। इसका नाम मैंने भी सुना है। हो सकता है इससे हमारा काम बन जाए।' मैं बोला-'ऐसा करो भाई जी, सभी टोपियों का एक-एक नमूना दे दो। जैसा अवसर होगा तथा हवा होगी, वही पहन लेंगे।' पत्नी भी बोली -'हां, यही ठीक रहेगा।' हम आठ-दस प्रकार की रंग-बिरंगी टोपियां ले आए और घर आ गए। अब मैं अवसर की ताक में हूँ – जैसी हवा बहेगी वही पहन लूंगा। गलत पहन ली तो झट से बदल भी लूंगा। टोपियों का भी अपना अंदाज और बाजार है, बस भुनाने वाला चाहिए। टोपियों का बाजार भाव भी अनूठा है।
Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story