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पूंजीवाद का और साम्यवाद का भी, दावा है कि हर आर्थिक समस्या का हल पूंजी के पास है
By: divyahimachal
पूंजीवाद का और साम्यवाद का भी, दावा है कि हर आर्थिक समस्या का हल पूंजी के पास है। देशी हो कि विदेशी, हर पेशेवर अर्थशास्त्री पूंजी की इस ताकत का लोहा मानता है। यही हमारे विद्यालयों में पढ़ाया जाता है और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा प्रचारित भी किया जाता है। पूंजी से ही उत्पादन होता है। ज्यादा उत्पादन, ज्यादा आमदनी, उस आमदनी से फिर ज्यादा उत्पादन के लिए पूंजी, ऐसा क्रम बनता जाता है। इस मान्यता में यह निहित है कि समाज में खपत तो बनी ही रहेगी, बल्कि पूंजीवाद मानता है कि खपत असीमित है, संसाधन सीमित हैं। सीमित संसाधनों का उपयुक्त उपयोग केवल बड़ी पूंजी से ही संभव है और बड़ी पूंजी कुछ ही लोगों के पास होती है, इसलिए उन कुछ लोगों को सारी सुविधाएं उपलब्ध होंगी, तभी तेजी से विकास होगा। जब बड़े पैमाने पर, रोज-रोज उत्पादन होता है तो उसकी खपत बढ़ाने के लिए रोज-रोज प्रचार और विज्ञापन अनिवार्य हो जाते हैं। ध्यान रखें, विज्ञापन केवल खपत नहीं बढ़ाता, बल्कि वह ज़रूरत भी पैदा करता है। इससे एक नया समीकरण बनता है : बढ़ी खपत से आमदनी बढ़ती है, बढ़ी आमदनी से उत्पादन बढ़ता है और उससे बड़ा विकास होता है। लेकिन इसकी चर्चा कभी नहीं होती कि पूंजी किसके हाथ में है और उस पूंजी से किसका विकास होता है? आप इसे समझना चाहें तो पिछले दिनों पेट्रोल के दाम के आसमान छूने से समझिए। कहा गया कि पेट्रोल का उपयोग जो लोग करते हैं वे समाज के सक्षम लोग होते हैं और वे संख्या में बहुत थोड़े हैं। इसलिए पेट्रोल का दाम बढऩे से उन पर कोई असह्य बोझ नहीं पड़ेगा और वे इतने कम हैं कि उसका कोई सामाजिक परिणाम भी नहीं होगा। अगर हम यह सच मान लें तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि लाखों-करोड़ों-अरबों रुपए खर्च कर सडक़ों और पुलों का जाल केवल इन मु_ी भर लोगों के लिए ही बनाया जा रहा है? सरकारें जब अपनी उपलब्धियां गिनाती हैं तो सबसे पहले बताती हैं कि हमने कितनी रेल-रोड-एयरपोर्ट बनाए।
यह विकास किसके लिए हो रहा है? जरा ध्यान करिए, जब आप हाईवे पर चलते हैं तो सबसे ज्यादा क्या दिखता है? उन पर दौड़ते ट्रक, कंटेनर और महंगी गाडिय़ां और सर्व साधारण जनता चलती है पैदल, स्कूटर, रिक्शा और बसों से! इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर ये सारे काम केवल उन उद्योगों के लिए हो रहे हैं जो पूंजीवाद के खंभे हैं। नतीजा यह होता है कि पूंजी बढ़ती तो है, लेकिन पहुंचती उनके हाथों में है जिनके उद्योग-धंधे हैं। हम कहते हैं न कि पैसा पैसे को खींचता है! ठीक कहते हैं, लेकिन यह प्राकृतिक रिश्ता नहीं है, हमने सारी व्यवस्था बनाई ही इस तरह है कि पैसा पैसे वालों की तरफ बहता रहे। आप गौर करेंगे तो देख व समझ पाएंगे कि पूंजीवाद का चेहरा भले समय-समय पर बदलता रहता हो, पूंजी के बहाव का रास्ता कभी नहीं बदलता। वर्ष 2009 में जो वैश्विक आर्थिक संकट आया तो उससे निबटने के लिए बैंकों ने बेहिसाब पूंजी बाजार में उड़ेली। तब तक आ गया कोविड! अब जान बचाने की ताकत भी तो केवल पूंजी के पास ही है। तो कोविड के केवल दो सालों में दुनिया के हर देश ने उतनी ही अतिरिक्त मुद्रा फिर से छापी, जितनी कि कुल मिलाकर पिछले दस सालों में छपी थी। सवाल है कि यह सारी पूंजी गई कहां? आंकड़े तो यह बता रहे हैं कि इसी बीच दुनिया के (और भारत के भी) मु_ी भर लोगों के हाथ में पृथ्वी की सारी सम्पत्ति सिमट गई है। एक नतीजा यह भी हुआ कि चूंकि पैसा बहुत छापा गया और कोविड के दौरान उत्पादन पर एकदम ब्रेक लग गया तो आज महंगाई उफान पर है। अमीर देशों में महंगाई चालीस साल के ऊपर के स्तर पर है। कुछ कम अमीर देशों में 40 फीसदी से 60 फीसदी महंगाई है। हमें पूंजी वितरण के गांधीवादी तरीके को अपनाना चाहिए।
Rani Sahu
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