सम्पादकीय

क्षमता निर्माण का समय : हर घंटे एक भारतीय नागरिक ने बेरोजगारी, गरीबी या दिवालियेपन के कारण खुदकुशी की

Neha Dani
24 Jun 2022 1:58 AM GMT
क्षमता निर्माण का समय : हर घंटे एक भारतीय नागरिक ने बेरोजगारी, गरीबी या दिवालियेपन के कारण खुदकुशी की
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आधुनिक अर्थव्यवस्था और तेजी से बेहतर सार्वजनिक सुविधाएं प्रदान करने की चुनौतियों का सामना कर सके।

वर्ष 2019 में हर घंटे एक भारतीय नागरिक ने बेरोजगारी, गरीबी या दिवालियेपन के कारण खुदकुशी की। वर्ष 2018 से 2020 के बीच करीब 25 हजार भारतीय बेरोजगारी या कर्ज में डूबे होने के कारण आत्महत्या के लिए मजबूर हुए। जो लोग अब भी बेरोजगार हैं, उनके लिए विरोध प्रदर्शन स्वाभाविक नियति है। एक संविदाकर्मी के लिए सम्मान से राष्ट्र सेवा करना, उसके बुनियादी हक और सरोकार से जुड़ा है। इसकी अवहेलना की स्थिति में हाल में हमने अग्निपथ योजना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन को उबलते देखा है। मई, 2022 में हरियाणा में 2,212 संविदा स्वास्थ्य कर्मियों की सेवाएं एक झटके में समाप्त हो गईं।

जो लोग एक झटके में सड़क पर आ गए, उनमें नर्स, सफाईकर्मी, सुरक्षा गार्ड और पैरामेडिकल स्टाफ शामिल हैं। इन्हें कोविड महामारी के दौरान काम पर रखा गया था, लेकिन बाद में जरूरत खत्म होने पर उन्हें हटा दिया गया। 'इस्तेमाल करो और फेंको' का यह क्लासिक उदाहरण है। दिल्ली में लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज और राम मनोहर लोहिया अस्पताल सरीखे विभिन्न चिकित्सा कॉलेजों/संस्थानों के सैकड़ों नर्सों, पैरामेडिकल स्टाफ, लैब तकनीशियनों आदि ने भी रातोंरात अपने रोजगार अनुबंधों के खत्म होने का दंश झेला है।

थोड़े समय के लिए लोगों को काम पर रखना और उन्हें हटाना हमारी कार्य संस्कृति का हिस्सा नहीं है, बल्कि इसे बाहर से आयात किया गया है। इसके खिलाफ असम में 8,300 पंचायतों और ग्रामीण विकास संविदाकर्मियों ने फरवरी, 2022 में विरोध प्रदर्शन किया। वे 12-14 वर्षों से अनुबंध पर थे और उन्हें बोनस, भत्ते, पेंशन या वेतन संशोधन नहीं दिए गए थे। अप्रैल, 2022 में छत्तीसगढ़ के राज्य बिजली विभाग के 200 संविदाकर्मियों पर पहले पानी की बौछार की गई और फिर उन्हें गिरफ्तार किया गया। एक लोकसेवक के लिए ऐसी सूरत का सामना करना किस तरह त्रासद है, बताने की जरूरत नहीं।
दरअसल, इस समस्या के पीछे दो बातें हैं। पहली तो यह कि सरकार में खाली पदों को तेजी से नहीं भरा जा रहा। जुलाई, 2021 में सभी स्तरों पर सरकार में 60 लाख से अधिक रिक्तियां थीं। इनमें से 9,10,513 केंद्रीय मंत्रालयों और सरकार के पास थीं, जबकि पीएसयू बैंकों में दो लाख रिक्तियां होने का अनुमान था। इसके अलावा राज्य पुलिस में 5,31,737 से अधिक रिक्तियां, जबकि प्राथमिक विद्यालयों में 8,37,592 पद खाली होने का अनुमान था। सरकार ने डेढ़ साल में 10 लाख लोगों की भर्ती की बात कही है, जो समस्या के आकार के हिसाब से अपर्याप्त है। हमें इस मोर्चे पर ज्यादा गंभीर पहल करनी होगी।
दूसरी बात, जहां रिक्त पदों को भरा जा रहा है, वहां भी वह संविदा के आधार पर भरा जा रहा है। वर्ष 2014 में 43 फीसदी सरकारी कर्मचारियों की नौकरी अस्थायी या संविदा पर थी। इनमें करीब 69 लाख लोग आंगनवाड़ी जैसे शीर्ष कल्याण योजना के तहत कम वेतन (कुछ मामलों में तो न्यूनतम मजदूरी से भी कम) पर और न के बराबर सामाजिक सुरक्षा की स्थिति में काम कर रहे थे। 2018 आते-आते इस श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों की संख्या 59 फीसदी तक पहुंच गई। मार्च, 2020 में केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में अस्थायी (संविदा) कर्मचारियों का आंकड़ा 4,98,807 तक पहुंच गया।
इस दौरान स्थायी कर्मचारियों की हिस्सेदारी 25 फीसदी घट गई। चुनिंदा सार्वजनिक उपक्रमों पर विचार करें, तो मार्च, 2020 में ओएनजीसी के पास 81 फीसदी यानी 43,397 कर्मचारी संविदा पर थे। कुछ राज्यों ने इसे और आगे ले जाने की राह पकड़ी। 2020 में, जब महामारी के कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा हुई, तो उत्तर प्रदेश सरकार ने ग्रुप-बी और सी कर्मचारियों के लिए भर्ती में संशोधन करने की मांग की। पांच साल की अवधि के लिए संविदात्मक रोजगार बढ़ाने की इस पहल में कर्मचारियों को भत्ते और विशिष्ट लाभ की पेशकश नहीं की गई।
गौरतलब है कि 2020 में उत्तर प्रदेश में ऐसे कर्मचारियों की संख्या नौ लाख थी। इस व्यवस्था के तहत पांच साल की अवधि के बाद नियमितीकरण की भी बात कही गई। अलबत्ता इसके लिए एक कठोर मूल्यांकन प्रक्रिया से गुजरना लाजिमी होगा। जो इस प्रक्रिया में पास नहीं होंगे, उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा। फरवरी, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही एक मामले में सवाल उठाया कि यदि ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों के पास अनुबंध की शर्तें हैं, तो इससे सार्वजनिक लोकाचार की नैतिकता कैसे बहाल रह पाएगी। हमें संविदात्मक रोजगार का विस्तार करने के बजाय सार्वजनिक सेवाओं को बढ़ावा देना चाहिए।
पिछले कुछ दशकों से हम सार्वजनिक सेवाओं में कम निवेश कर रहे हैं। हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था के पास महामारी तो छोड़िए, सामान्य परिस्थितियों में भी नागरिकों को पर्याप्त स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने की क्षमता नहीं है। सार्वजनिक सेवा प्रावधान के विस्तार से कुशल श्रम के साथ अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियों का सृजन भी होगा, जो हमें सामाजिक स्थिरता प्रदान करेगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा बढ़ाने पर सामाजिक संपत्ति का भी निर्माण होगा। इससे आयुष्मान भारत जैसे बीमा-आधारित मॉडल के भी कारगर होने में मदद मिलेगी।
ऐसे खर्च से अंततः उपभोक्ता मांग में वृद्धि के साथ कई ठोस प्रभाव सामने आएंगे। इन सबसे भारत के शहरों और गांवों में उत्पादकता और जीवन की गुणवत्ता में सुधार होगा। इसी तरह अक्षय ऊर्जा और अपशिष्ट प्रबंधन के क्षेत्र में भी रोजगार सृजन की महत्वपूर्ण संभावनाएं हैं। इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने और हरित गतिशीलता को प्रोत्साहित करने के लिए महत्वपूर्ण जनशक्ति की आवश्यकता होगी, जिससे हरित रोजगार पैदा होगा। इसके अलावा, हमें पर्माकल्चर (पारिस्थितिकी खेती), बागवानी और नर्सरी प्रबंधन में महत्वपूर्ण रोजगार क्षमता के साथ शहरी खेती को प्रोत्साहित करना चाहिए।
सरकारी नौकरियों की चमक फीकी पड़ गई है। ऐसे में, हमें प्रतिभा को सरकार की ओर आकर्षित करने की जरूरत है। पेंशन और लाभों की लागत कम करने या उससे बचने के बजाय इसे अपेक्षित शक्ल देनी होगी। यह कुशल सिविल सेवा के लिए क्षमता निर्माण का समय है, जो भ्रष्टाचार मुक्त कल्याण प्रणाली, आधुनिक अर्थव्यवस्था और तेजी से बेहतर सार्वजनिक सुविधाएं प्रदान करने की चुनौतियों का सामना कर सके।

सोर्स: अमर उजाला

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