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एक पार्टी, एक विचारधारा और एक परिवार जिसका पार्टी पर वर्चस्व होता है. पर क्या वह परिवार एक है?
अजय झा एक पार्टी, एक विचारधारा और एक परिवार जिसका पार्टी पर वर्चस्व होता है. पर क्या वह परिवार एक है?
यहां बात कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार की हो रही है. अगर कांग्रेस पार्टी के सूत्रों की माने तो गांधी परिवार तीन अलग अलग खेमों में बंटता जा रहा है. गांधी परिवार के तीन सदस्य पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं. सारे महत्वपूर्ण फैसले यही परिवार लेता है. बाहर से देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि राहुल और प्रियंका गांधी अपनी मां सोनिया गांधी की पार्टी चलाने में मदद कर रहे हैं, पर अगर हाल की घटनाओं पर नज़र डालें तो साफ़ लगता है कि कांग्रेस पार्टी उस तिपहिया वाहन की तरह है जिसके तीनों पहिये अगल अलग दिशा में चल पड़े हैं, और जब ऐसा होता है तो उस वाहन की दुर्घटना तय मानी जाती है.
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह इन दिनों बार-बार आपने अपमान की बात कहते दिख रहे हैं, जो गलत भी नहीं है. उनका कहना है कि उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की पेशकश की थी पर सोनिया गांधी ने उन्हें पद पर बने रहने का आदेश दिया था. कांग्रेस पार्टी ने यह अधिकारिक रूप से ऐलान भी कर रखा था कि राज्य में आगामी विधानसभा चुनाव अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. पिछले तीन चार महीनों से उनके नेतृत्व को सरेआम चुनौती दी जा रही थी. अमरिंदर सिंह को जानकारी मिली कि बिना उन्हें बताए हुए कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई गयी है. बर्खास्त होने से बेहतर उन्हें यही लगा कि वह मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दें, जो अपनी इज्जत बचाने की दिशा में सही निर्णय था. सोचने वाली बात है कि सोनिया गांधी का निर्देश कि अमरिंदर सिंह अपने पद पर बने रहें और फिर उनकी जानकारी के बिना विधायक दल की बैठक बुलाने के बीच में ऐसा क्या हो गया जिस वजह से एक बुजुर्ग और लोकप्रिय नेता को इस्तीफा देना पड़ा.
पार्टी तीन खेमों में बंट चुकी है
कांग्रेस पार्टी के सूत्रों की माने तो पार्टी अब तीन खेमों में बंट गयी है और तीनों खेमों के मुखिया गांधी परिवार के ही सदस्य हैं. इसे नरम दल, गरम दल और मध्य दल भी कहा जा सकता है. नरम दल की मुखिया सोनिया गांधी हैं. उन्हें अपने हमउम्र नेताओं के साथ काम करना ज्यादा पसंद है. सोनिया गांधी सभी को साथ ले कर चलने की नीति में विश्वास रखती हैं. दूसरी तरफ गरम दल है जिसका नेतृत्व राहुल गांधी कर रहे हैं. उन्हें किसी की इज्जत या साख की परवाह नहीं है. उन्हें वही लोग पसंद हैं जो उन्हें अपना नेता मानते हैं और उनकी हां में हां मिलाते हैं. राहुल गांधी का लक्ष्य सिर्फ एक ही है कि जैसे भी हो उन्हें 2024 में प्रधानमंत्री बनना है. पार्टी के पतन के लिए वह स्वयं या अपने परिवर को दोष नहीं देते हैं और उनका मानना है कि पार्टी का पुनर्निर्माण तब ही संभव है जब बुजुर्ग नेताओं की महत्वपूर्ण पदों से छुट्टी हो जाए. चूंकि अगले लोकसभा चुनाव में अभी भी लगभग ढाई वर्ष का समय बाकी है, इसके लिए जैसे किसी पुरानी इमारत को तोड़ कर उसकी जगह नए भवन का निर्माण होता है, वह कांग्रेस पार्टी के पुराने और जर्जर ढांचे को भी राहुल गांधी तोड़ने को भी तैयार है, भले ही पंजाब और अन्य राज्यों में पार्टी चुनाव क्यों ना हार जाए.
तीसरा खेमा मध्य दल है जिसका नेतृत्व प्रियंका गांधी कर रही हैं. प्रियंका बिना कांग्रेस के ढांचे को तोड़े हुए उनकी मरम्मत करने में विश्वास रखती हैं, यानि प्रियंका मां और भाई के दो अलग-अलग रास्ते के बीच में खड़ी हैं. प्रियंका को सक्रिय राजनीति में आये ढाई वर्ष हो चुका है और अब उनकी अपनी टीम बन चुकी है. जहां शुरू में उनका ध्यान सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित होता था, अब वह दूसरे राज्यों में भी दिलचस्पी लेने लगी है. दुर्भाग्यवश पंजाब में तीनों खेमों की टक्कर हो गयी जिसका नतीजा है कि जहां प्रदेश में चुनाव होने में सिर्फ चार-पांच महीने ही बचे हैं, वहां सियासी घमासान ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है.
नवजोत सिद्धू ने प्रियंका कैंप की डोर पकड़ी
नवजोत सिंह सिद्धू पहले राहुल गांधी के विश्वासपात्र माने जाते थे. दो साल तक वह प्रतीक्षा करते रहे कि राहुल गांधी उन्हें पार्टी या सरकार की कमान सौंपेंगे, पर जब ऐसा होता नहीं दिखा तो वह प्रियंका गांधी के खेमे में शामिल हो गए. सिद्धू सफल रहे और अमरिंदर सिंह के विरोध के बावजूद भी सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष का पद मिल गया. राहुल गांधी को इससे परहेज भी नहीं था क्योंकि इस कदम से उनकी आंखों की किरकिरी अमरिंदर सिंह कमजोर पड़ने वाले थे. सिद्धू की चाहत सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष बनना ही नही था. सिद्धू की नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी थी. पर राहुल गांधी ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया.
राहुल गांधी आजकल प्रशांत किशोर से प्रभावित
राहुल गांधी के बारे में यह मशहूर है कि उन्हें प्रभावित करना काफी आसन होता है. इन दिनों वह चुनाव रणनीति के माहिर प्रशांत किशोर से काफी प्रभावित हैं. प्रशांत किशोर 2017 के चुनाव में पंजाब में अमरिंदर सिंह के सलाहकार थे. अमरिंदर सिंह ने उन्हें एक बार फिर से कैबिनेट मंत्री का दर्ज़ा दे कर अपना प्रमुख सलाहकार नियुक्त किया था, पर दो महीनों के अन्दर ही प्रशांत किशोर ने सलाहकार पद से इस्तीफा दे दिया. शायद उन्हें अहसास हो गया था कि अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी चुनाव नहीं जीत पाएगी. माना जाता है कि प्रशांत किशोर की ही यह नीति थी कि कांग्रेस पार्टी के लिए सबसे बेहतर यही होगा कि वह पंजाब में दलित कार्ड खेले और किसी दलित सिख को मुख्यमंत्री बनाया जाए. पंजाब में लगभग एक तिहाई मतदाता दलित हैं. शिरोमणि अकाली दल का बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के बाद कांग्रेस पार्टी के लिए दलित कार्ड खेलना जरूरी हो गया था, लिहाजा अमरिंदर सिंह को हटा कर सिद्धू को मुख्यमंत्री बनाने की जगह सिद्धू के करीबी चरणजीत सिंह चन्नी, जो एक दलित सिख हैं, को मुख्यमंत्री बनाया गया. सिद्धूको भरोसा था कि चन्नी उनके इशारों पर नाचेंगे. पर माना जाता है कि राहुल गांधी की शह पर मंत्रीमंडल के गठन और कुछ प्रमुख सरकारी पदों पर नियुक्ति के मामले में चन्नी ने सिद्धू को विश्वास में नहीं लिया जिसका नतीजा रहा सिद्धू का अध्यक्ष पद से इस्तीफा. अभी भी स्थिति स्पस्ट नहीं है कि क्या सिद्धू का इस्तीफा मंजूर हो गया है या फिर वह अध्यक्ष पद पर बने हुए हैं. माना जा रहा है कि राहुल गांधी प्रशांत किशोर को कांग्रेस पार्टी के किसी बड़े पद पर नियुक्ति के पक्ष में हैं ताकि प्रशांत किशोर उन्हें प्रधानमंत्री बनने में मदद कर सकें.
कांग्रेस पार्टी के सूत्रों का मानना है कि अभी स्थिति ऐसी नहीं हुई है कि पार्टी के तीनों खेमों का आपस में टक्कर शुरू होने लगे क्योंकि गांधी परिवार के तीनों सदस्यों का आपस में घनिष्ठ संबंध है और फ़िलहाल उनकी सिर्फ सोच अलग है. पर वह दिन ज्यादा दूर नहीं है जबकि यह तकरार टकराव में बदल जाए क्योंकि अगर 2024 में राहुल गांधी लगातार तीसरी बार भी प्रधानमंत्री बनने में विफल रहते हैं तो प्रियंका गांधी 2029 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर सकती हैं, जो शायद राहुल गांधी को मंज़ूर नहीं होगा.
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