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अमृतसर के 19 वर्षीय एक लड़के को 13 अप्रैल 1919 को अकल्पनीय खौफनाक मंजर में धकेल दिया गया।
एन. रघुरामन का कॉलम:
अमृतसर के 19 वर्षीय एक लड़के को 13 अप्रैल 1919 को अकल्पनीय खौफनाक मंजर में धकेल दिया गया। जलियांवाला बाग नामक खुली जगह पर उसने कई लाशें और घायलों को देखा। यहां ब्रिटिश सैनिकों ने निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई थीं। वह युवा सरदार, उधम सिंह इस नरसंहार से भीतर तक हिल गया और भागकर अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर पहुंचा।
वहां से 1933-34 में लंदन गया और अपनी जिंदगी के 6 निर्णायक साल बिताकर क्रांति की ज्वाला जगाए रखी। फिर 21 साल से टीस दे रहे जख्म के साथ, 13 मार्च 1940 को उधम ने माइकल ओ'डायर को मार दिया, वह व्यक्ति जो जलियांवाला हत्याकांड के लिए जिम्मेदार था। उधम को 31 जुलाई 1940 को फांसी दे दी गई और उनके अवशेष आज भी नरसंहार वाली जगह पर संरक्षित हैं।
कल मैंने इस शनिवार रिलीज हुई फिल्म 'सरदार उधम' देखी, जो इन शहीद की जिंदगी पर आधारित थी, जिन्हें अनीता आनंद ने अपनी किताब 'द पेशेंट एसासिन' में इस तरह परिभाषित किया है, 'एक ऐसा व्यक्ति जिसके बास बचपन में बहुत कुछ नहीं था, लेकिन जो बहुत कुछ बनना चाहता था।' फिल्म में उधम की भूमिका निभा रहे विकी कौशल और उनके वकील के बीच संवाद है, जिसमें उधम कहते हैं, 'जब मैं 18 साल का हुआ तो मेरे शिक्षक ने कहा, बेटा, जवानी रब का दिया हुआ तोहफा है।
अब ये तेरे ऊपर है कि उसको ज़ाया करता है या कोई मतलब देता है। मैं उनसे पूछूंगा, 'क्या मैंने मेरी जवानी को मायने दिए।' यानी उन्हें आभास था कि उन्हें फांसी मिलेगी और वे शिक्षक से स्वर्ग में मिलेंगे। इस शक्तिशाली संवाद ने मुझे इसी का एक और स्वरूप याद दिलाया, जो मेरी मां ने मुझसे मेरे 18 वर्ष के होने के चार महीने बाद कहा था। जब मैं पढ़ाई और नौकरी के लिए बॉम्बे जा रहा था, उन्होंने कहा था, 'अब तू 18 का हो गया है। अब तुझपर निर्भर है कि तू कैसे इस खानदान की नैया पार करने में पिता की मदद करता है।'
उस दिन शायद मैं जिंदगी में सबसे ज्यादा रोया था। मेरी मां की सलाह थी कि मैं 'अपनी जवानी के दिनों में खानदान की नैया पार करने पर ध्यान दूं।' मुझे नहीं पता, मैंने कितने दिन मुंबई में सड़क किनारे खड़े होकर उड़ती धूल के बीच खाना खाते हुए यह याद किया कि मां मुझे कितने प्यार से खिलाती थी। न जाने कितने दिन मैंने एक ही सफेद शर्ट पहनी, जिसे मैं रात में धोकर सुबह पहन लेता था, ताकि किसी को पता न चले कि मेरे पास कितनी शर्ट हैं।
कितनी बार मैंने दोस्तों से झूठ बोला कि मुझे सिर्फ सफेद शर्ट पसंद हैं, हालांकि मुझे रंग पसंद थे, खासतौर पर चमकदार बॉम्बे शहर में रहने के बाद। न जाने कितनी रातें मैंने बालकनी के आकार के किराये के कमरे में सोते हुए बिताईं और बार-बार अपना सूटकेस खोलकर छोटी-सी बचत देखी क्योंकि मेरे पास अलमारी नहीं थी। मैं शायद हर रात रोया लेकिन मैंने मां से वादा किया था कि कभी ध्यान नहीं भटकने दूंगा।
मैं ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानता जिसकी जिंदगी में कभी 'उधम' (पढ़ें उतार-चढ़ाव) न रहा हो। सरदार उधम ने अपनी जिंदगी के 'उधम' को संभालने का अपना तरीका चुना और हम अपने तरीके चुनते हैं। फंडा यह है कि कोई भी जिंदगी बिना 'उधम' के नहीं होती लेकिन अपनी जवानी को सही मायने देकर और इसका रचनात्मक इस्तेमाल कर इन उतार-चढ़ावों को संभाल सकते हैं।
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