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- क्या करे कांग्रेस तो...
आनंद प्रकाश।
पांच राज्यों-उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनाव के नतीजे देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिए घोर निराशाजनक साबित हुए। किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन यह पार्टी सिर्फ राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे दो राज्यों तक सीमित हो जाएगी। एक समय यह पार्टी पूरे भारत में अपनी सरकार बनाती थी, लेकिन आज मुख्य विपक्षी दल बने रहने के लिए भी संघर्ष कर रही है। कांग्रेस की यह स्थिति खुद कांग्रेस की ही देन है। विगत कुछ वर्षों में कांग्रेस एक ऐसे दल के रूप में बदल गई है, जो अपने आप में एक विरोधाभास समेटे हुए है। इसके सारे फैसले नेहरू-गांधी परिवार लेता हुआ नजर आता है। इसका शीर्ष नेतृत्व या कहें हाईकमान राज्यों के नेताओं के पारस्परिक विवादों को सुलझाने में ही लगा रहता है। इसके बाद भी वह बड़े नेताओं के झगड़े सुलझा नहीं पा रहा है। कांग्रेस नेतृत्व की यह स्थिति परवर्ती मुगलों के समान दिखाई देती है। कहने को तो उनके पास पूरा भारत था, लेकिन वास्तव में उनका साम्राज्य सिर्फ पुरानी दिल्ली से पालम तक ही चलता था। पंजाब और उत्तराखंड में इस बार कांग्रेस की जीत की अच्छी संभावनाएं दिख रही थीं। हालांकि पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू एवं कैप्टन अमरिंदर सिंह, फिर बाद में चरणजीत सिंह चन्नी और उत्तराखंड में हरीश रावत एवं प्रीतम सिंह के आपसी कलह ने उसे पूरे परिदृश्य से ही बाहर कर दिया। इसी तरह कांग्रेस में असंतुष्ट नेताओं का एक समूह पनप चुका है जिसे संभालना पार्टी के लिए लगातार कठिन होता जा रहा है। दिक्कत की बात यह है कि कांग्रेस नेतृत्व दशकों से इन्हीं नेताओं पर आश्रित रहा है। आज स्थिति यह है कि इन नेताओं के असहयोग के कारण कांग्रेस हर जगह असमर्थ दिखती है। कांग्रेस को चाहिए कि भाजपा की तरह वह नेताओं की नई पौध को लगातार विकसित करता रहे। उन्हें भविष्य के नायक के रूप में तराशती रहे। कांग्रेस को यह भी विचार करना होगा कि अब उसके दल का कौन-सा पुर्जा पूरी तरह से घिस चुका है, कौनसा पहिया टूट चुका है और किसे राजनीतिक समर से बाहर भेजा जाना चाहिए। वर्तमान का नुकसान भविष्य के विनाश से ज्यादा बेहतर होता है।