सम्पादकीय

सियासत के परिसर

Subhi
28 May 2022 4:35 AM GMT
सियासत के परिसर
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शिक्षण संस्थानों को राजनीतिक दखलंदाजी से दूर रखने के मकसद से विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता दी गई थी। उनमें होने वाली नियुक्तियों, शोध-अनुसंधानों आदि को लेकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग नियम-कायदे तय जरूर करता है

Written by जनसत्ता: शिक्षण संस्थानों को राजनीतिक दखलंदाजी से दूर रखने के मकसद से विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता दी गई थी। उनमें होने वाली नियुक्तियों, शोध-अनुसंधानों आदि को लेकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग नियम-कायदे तय जरूर करता है, मगर शैक्षणिक गतिविधियों और अनुशासनात्मक मामलों में निर्णय लेने को विश्वविद्यालय स्वतंत्र हैं। मगर विचित्र है कि अब विश्वविद्यालयों में राजनीति इस कदर पैठ बना चुकी है कि तमाम नियुक्तियों से लेकर पाठ्यक्रमों आदि के निर्धारण और पठन-पाठन संबंधी गतिविधियों तक में सत्ताधारी दलों की इच्छा काम करने लगी है।

यह आज की बात नहीं है। वर्षों से विकसित होते-होते आज यह परिपाटी इस स्थिति में पहुंच गई है। यही वजह है कि अब विश्वविद्यालयों के कुलपतियों आदि की नियुक्ति को लेकर कई राज्यों में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच तल्खी उभर आती है।

चूंकि राज्यों द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति वहां के राज्यपाल होते हैं, और उन्हें नियुक्तियों आदि में हस्तक्षेप का अधिकार है, इसलिए कई बार देखा जाता है कि जिन लोगों के नाम चयन समिति सुझाती है और उनमें से जिस व्यक्ति को राज्य सरकार अनुमोदित करती है, उसे राज्यपाल अस्वीकृत कर देते हैं। चूंकि राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है, इसलिए पिछले काफी समय से राज्यपाल केंद्र की मंशा के अनुरूप ही काम करते देखे जाते हैं। पश्चिम बंगाल में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच जब-तब उभर आता टकराव इसी का नतीजा है।

पश्चिम बंगाल सरकार ने इसी टकराव को दूर करने के मकसद से अब ऐसा कानून बनाने का कदम उठाया है, जिसके तहत राज्य द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति मुख्यमंत्री होगा। इस कदम के पीछे इरादा साफ है कि विश्वविद्यालयों में राज्यपाल का हस्तक्षेप बंद हो। अब कुलपति की नियुक्ति और शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े फैसले करने को राज्य सरकार स्वतंत्र होगी।

दरअसल, विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति इसलिए सरकारों के लिए अहम होती है कि वे उसके जरिए बौद्धिक जमात को अपने पक्ष में करने का प्रयास करती हैं। इस तरह वे परिसरों में अपने विद्यार्थी संगठनों को भी सक्रिय करने में अधिक सफल हो पाती हैं। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल चूंकि सरकार के काम में कुछ अधिक ही हस्तक्षेप करते देखे जाते हैं, इसलिए ममता बनर्जी के लिए विश्वविद्यालयों को अपनी मुट्ठी में करने का मौका नहीं मिल पा रहा था।

हालांकि राज्यपाल को विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति जरूर बनाया गया, पर इससे पहले शायद ही कभी देखा गया कि वे राज्य सरकार के विश्वविद्यालयों आदि के संचालन में अवरोध पैदा करते रहे हों। यह एक तरह से शोभा का पद ही अधिक रहा है। मगर जबसे राजनीतिक गुणा-भाग करके राज्यपालों की नियुक्ति की जाने लगी है और केंद्र सरकार उनसे अपेक्षा करने लगी है कि वे केंद्र की मंशा के अनुरूप काम करें और राज्य सरकारों पर नजर रखें, तबसे विश्वविद्यालयों की गतिविधियों पर भी अंकुश लगाने की कोशिश देखी जाने लगी है।

जिन राज्यों में केंद्र से अलग दल की सरकारें हैं, वहां इसे लेकर अक्सर टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है। यह अकेले पश्चिम बंगाल की समस्या नहीं है। कुछ महीने पहले तमिलनाडु ने भी कानून पारित कर राज्यपाल के बजाय मुख्यमंत्री को कुलाधिपति बनाने का रास्ता साफ कर दिया।

राजस्थान सरकार भी ऐसा कानून लाने जा रही है। भले राज्य सरकारें इस कदम को परिसरों की स्वायत्तता सुरक्षित रखने का प्रयास बता रही हों, पर यह तो साफ हो गया कि वह अब कहीं नहीं बची है। शैक्षणिक परिसर अब राजनीति के अखाड़ों में तब्दील हो चुके हैं।


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