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सम्पादकीय
यूक्रेन पर भारत की नीति को अनैतिक कहना पश्चिमी देशों का दोगलापन है, उन्हें अपने गिरेबान में झांकना चाहिए
Gulabi Jagat
29 March 2022 8:35 AM GMT

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यूक्रेन-संकट पर संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग के दौरान भारत के बार-बार गैर-हाजिर रहने पर पश्चिमी देशों ने आलोचना की है
शेखर गुप्ता का कॉलम:
इस लेख की शुरुआत एक प्रश्न से और कृपया उत्तर जानने के लिए गूगल न करें। तो बताइए- ऑपरेशन सर्चलाइट क्या था, और कब और क्यों चला था? जो इसका जवाब जानते हैं वे यह भी समझ गए होंगे कि मैं यह प्रश्न क्यों पूछ रहा हूं।
यूक्रेन-संकट पर संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग के दौरान भारत के बार-बार गैर-हाजिर रहने पर पश्चिमी देशों ने आलोचना की है और अनैतिकता को लेकर ताने भी कसे हैं। कि अरे भारत! आप तो विश्वगुरु बनने की बात करते हैं, एक महाशक्ति द्वारा एक छोटे-से राष्ट्र को तबाह करने पर ऐसा पाखंड क्यों, आप कब तक चुप्पी साधे रह सकते हैं? आपकी नैतिकता कहां गई?
इन तानों का जवाब देना आसान है। भारत के लिए तब तक चुप रहने में भलाई है, जब तक वह अपनी बात रखने के नतीजाें को झेलने की स्थिति में न आ जाए। जहां तक बात नैतिकता की है तो बहस को थोड़ा विस्तार देने की जरूरत है। और यहीं पर ऑपरेशन सर्चलाइट के जिक्र की जरूरत नजर आती है।
बीते दिनों बांग्लादेश और कभी पूर्वी पाकिस्तान कहे जाने वाले हिस्से पर पाकिस्तानी सेना की दमनकारी कार्रवाई की 51वीं वर्षगांठ थी, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के इतिहास में सबसे बड़े सामूहिक अत्याचारों में से एक की इबारत लिख दी थी। लाखों लोग मारे गए, अनगिनत बलात्कार हुए और एक करोड़ से अधिक लोगों को भारत में शरण लेने पर बाध्य होना पड़ा।
ये आंकड़ा यूक्रेन से निकलकर पड़ोसी देशों में शरण लेने पहुंचे लोगों से तीन गुना ज्यादा है। बेशक, यूक्रेन-संकट विशेषाधिकार प्राप्त देशों को बहुत परेशान कर रहा होगा क्योंकि ये यूरोप के मध्य में घट रहा है, न कि अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका जैसे स्थानों में, जहां ये सब 'सामान्य' है। यह ऐसा युद्ध है जिसमें एक देश ने दूसरे पर हमला बोला है।
लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में गरीबी से त्रस्त और खुद को बचाने में अक्षम आबादी पर आठ माह तक ऐसी सेना ने कहर बरपाया, जिस पर उसकी रक्षा की जिम्मेदारी थी। पाकिस्तानी सेना ने हत्या व लूट के उस अभियान को जो नाम दिया वो था ऑपरेशन सर्चलाइट।
चूंकि यूक्रेन पर भारत की चुप्पी पर नैतिकता पर सवाल उठाए जा रहे हैं, इसलिए यह जानना रोचक होगा कि सामूहिक नरसंहार की उस घटना पर पश्चिमी देशों का रुख क्या था। किसी भी राष्ट्र की विदेश और रणनीतिक नीतियां नैतिकता के आधार पर तय नहीं होतीं। जो देश ऐसा दावा करते हैं, वो 10 सेकंड की तथ्यात्मक जांच में इस पर खरे नहीं उतर पाएंगे।
अपनी चिरकालिक तटस्थता के साथ स्विट्जरलैंड को दुनिया भर के चोरों, ठगों, सामूहिक हत्यारों, तानाशाहों और निरंकुश शासकों की काली कमाई को छिपाकर रखने का ठेका तो लगता है खुद भगवान ने दे रखा है। दुनिया भर में हर तरह के अधिकारों के समर्थक अति-नैतिकतावादी स्वीडन ने अपनी तोपें (बोफोर्स) बेचने के लिए गरीब भारत में रिश्वत दी और 35 सालों में कभी किसी को इस पर हिसाब देने की जेहमत नहीं उठाई।
अफगानिस्तान पर रूसियों के हमले को लेकर खुद को अति-नैतिक समझने वाले अमेरिका को क्या उस पर कब्जा करने और फिर उसे तबाह करने के बाद तालिबान के हाथों सौंप देने का मलाल है? या उसे सिर्फ यूक्रेन की चिंता है, वो भी सद्दाम हुसैन के पास परमाणु हथियार होने के कपटपूर्ण दावों को लेकर इराक को बर्बाद कर देने के बाद?
ब्रिटेन तो विवादित द्वीप के कुछ क्षेत्र के लिए अर्जेंटीना से लड़ने फॉकलैंड्स तक पहुंच गया था। प्रमुख इस्लामिक राष्ट्रों ने फिलिस्तीन के बारे में जो रुख अपनाया है, वही हमें सबक देने के लिए काफी है। आज अधिकांश शक्तिशाली खाड़ी देशों ने भी फिलिस्तीनी अधिकारों की बात तक करना छोड़ दिया है।
एर्दोगन के सुपर-इस्लामिस्ट तुर्की ने तो हाल ही में इजरायली राष्ट्रपति का स्वागत कुछ इस अंदाज में किया कि इसे आप किसी 'जिगरी दोस्त' के लिए किए इंतजाम जैसा कह सकते हैं। दूसरी ओर, ईरान ने फिलिस्तीनियों के लिए प्रॉक्सी वार चला रखी है, यहां तक कि सीरिया और लेबनान से दूरी की कीमत पर भी।
चीनी विदेश मंत्री कश्मीर मसले पर भारत को खरी-खोटी सुना सकते हैं, लेकिन उनकी सरकार उइगरों का उत्पीड़न जारी रखती है। उइगरों पर चीन से सवाल करने के लिए पाकिस्तान को कश्मीर मसले और भारत के साथ वैमनस्य को इतर रखकर अपने राष्ट्रीय हित को किसी और तरीके से परिभाषित करने की जरूरत पड़ेगी।
तब तक उइगरों की दुर्दशा उनके अनुकूल ही है। दशकों तक भारत ने फिलिस्तीनियों की खातिर इजरायल और पश्चिमी देशों के खिलाफ मतदान किया, लेकिन भारत के युद्धों और संकटों पर अरब देशों की वोटिंग और ओआईसी के रुख को देख लें। 1971 में जॉर्डन की तरफ से पाकिस्तान को एफ-104 स्टारफाइटर्स दिया जाना तो बाकायदा दस्तावेजों में दर्ज है।
आज वही अरब देश भारत पर अपनी स्थिति पूरी तरह बदल चुके हैं तो इसलिए नहीं क्योंकि वे अनैतिक हो गए हैं। भारत ने पोखरण 1974 और 1998 के बाद लगभग तीन दशकों तक कड़े प्रतिबंध झेले हैं। इस बीच अमेरिका एफ-16 और अन्य तरीकों से पाकिस्तान को मजबूत करता रहा, यहां तक कि चीन के सहयोग से उसके उन्नत परमाणु हथियार कार्यक्रम को भी उसने नजरअंदाज कर दिया।
क्या भारत बिना प्रतिरोधक क्षमता के बचा रह सकता था, वो भी तब जब दो शातिर परमाणु शक्तियां, मान लें कि एक 'बड़ा' पुतिन और एक 'छोटा' पुतिन उसके लिए खतरा बने हुए हों?
विदेश नीति में देशहित ही सर्वोपरि
भारत लंबे समय तक नैतिकता का भार उठाए रहा है। 1991 तक भारतीय विदेश नीति गुटनिरपेक्षतावादी, सोवियत समर्थक, फिलिस्तीन समर्थक, रंगभेद विरोधी आदि रही है। एक लंबा दौर ऐसा रहा जब वह पूरी तरह भारत-समर्थक नहीं रही। 1991 में जाकर नरसिम्हाराव ने छद्म आवरण में लिपटी गुटनिरपेक्ष नीति से बाहर निकलने की दिशा में कदम उठाया और इजरायल से राजनयिक संबंध बनाए।
यही कारण है कि यूक्रेन पर भारत की नीति को नैतिकता के नजरिए से नहीं देख सकते। और अगर पश्चिमी देश ऐसा करते हैं, तो उसी नैतिकता की सर्चलाइट में अपने गिरेबान में भी झांककर देखें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Gulabi Jagat
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