- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- धरती कहे पुकार के
शकुंतला देवी: एक बड़े बुजुर्ग से एक किशोर इसलिए नाराज होकर उन्हें उल्टी-सीधी बातें बोलने लगा था, क्योंकि वे उससे पांचवीं की पुस्तक में लिखे 'धरती मां' निबंध के बारे में सवाल पूछ बैठे थे। किशोर का कहना था, उससे किताब में लिखी बातों पर बेमतलब क्यों बात की जा रही है। आज सोशल मीडिया का जमाना है। उसके लिए खास धरती मां नहीं, बल्कि वह 'गेम' है, जिससे वह रोज खूब मजे लेता है।
यों तो यह कहना बहुत मुश्किल है कि दुनिया में सबसे खास कौन-सी चीज, विषय या कार्य है, लेकिन इतना तो कह ही सकते हैं कि जिससे सबको पोषण और संरक्षण मिलता है, वह धरती मां सबसे खास है। यह बात दीगर है कि बदले वक्त में हम धरती को कितना खास तवज्जो देते हैं। जिस धरती को भारतीय ऋषि-मुनि 'मां' कह कर इज्जत देते थे और उसके संरक्षण के लिए अपना फर्ज पूरा करने की बात करते थे, उस धरती के प्रति हमारा नजरिया ऐसा बदल गया कि यह एक मामूली चीज जैसी भी नहीं? शायद यही वजह है कि धरती पर सब कुछ धीरे-धीरे बदल रहा है।
साफ हवा को तवज्जो देना बंद किया, जिससे पर्यावरण का सत्यानाश हो गया। साफ पानी को तवज्जो देना छोड़ दिया, साफ पानी पीने के लाले पड़ गए। धरती की उर्वराशक्ति का संरक्षण करना छोड़ दिया, धरती बंजर हो गई। पेड़ कटाई ऐसी की कि जंगल के जंगल खत्म हो गए और ऋतु-चक्र असंतुलित हो गया। जीव-जंतुओं के प्रति दया, क्षमा और करुणा निभाने बंद किए, जीव-जंतु खत्म होने के कगार पर आ गए। नदी, समुद्र और तालाब की सुरक्षा करना छोड़ दिया, तो वे प्रदूषित और गंदे हो गए।
बेहतरी के लिए अच्छे विचारों को फैलाना छोड़ दिया, समाज में बुरे विचारों की भरमार हो गई। इसलिए ऋग्वेद के ऋषि हमें हजारों साल पहले सचेत कर गए थे- 'वनस्पते जीवानां लोक मुन्नय'। यह धरती हमारी मां है। इस पर जितने भी जड़-चेतन, जीव-जंतु और वनस्पतियां हैं, सभी का संरक्षण करना धरती पर रहने वाले हर इंसान का फर्ज है।
कहते हैं, किताबों में लिखी विद्या और पराए हाथ में गया धन वक्त पर काम नहीं आते। बचपन में हम सबने किताबों में पढ़ा था कि धरती पर जो जितना अच्छा करता है, धरती उसी तरह उसे वापस देती है। कवि सुमित्रानंदन पंत ने इसी भावना से बचपन में कुछ पैसे बोए थे और उम्मीद लगा बैठे थे कि उनके बोए पैसे अंकुरित होंगे और बड़े होकर जितना बोए हैं, उससे बहुत ज्यादा पैसे फलेंगे। काफी दिनों के बाद जब उनके बोए पैसे न अंकुरित हुए, तो उन्हें बहुत निराशा हुई। तब बाल मन को समझ में आया कि धरती सोना, चांदी, रत्न, अन्न, फूल-फल, औषधि-वनस्पतियां तो खूब दे सकती है, लेकिन इंसान द्वारा बनाए गए कृत्रिम पैसों को अंकुरित करने की उसकी सामर्थ्य नहीं। यानी धरती को कृत्रिमता स्वीकार नहीं।
हमने किताबों में पढ़ कर फूलों की तरह न मुसकाना सीखा, न घास की हरियाली में हरे-भरे रहना और न तो चिड़ियों की तरह मस्त रहना और प्रकृति के साथ मौज-मस्ती करना। हां, दूसरों को जबरन सीख देने के लिए सलाहकार बन संस्थान जरूर खोल लिए। धरती पर बाल कविता लिख कर पंत, नेपाली और हरिऔध ने हमें धरती के प्रति कृतज्ञ रहने की सीख दी तो, फिल्मों से हमने धरती की खूबियों के गाने सुने। लेकिन उनसे कुछ सीखा क्या? क्या धरती के प्रति हमारे नजरिए में कोई सद्भावना, कृतज्ञता या विन्रमता का भाव उपजा? शायद उसी वजह से एक कहावत चल निकली- सीख उसे ही दीजिए, जिसे सीख सुहाय। कहने का मतलब कि हमने अब धरती से सीखना बंद कर दिया है।
हमारे ज्ञान-ग्रंथों में जो कुछ सीखने के लिए है, अगर उसे अमल में लाया जाए तो जिंदगी धरती की तरह विनम्र, धैर्यवान, ममता से युक्त, परहितकारी और हमेशा जीती-जागती बन जाएगी। लेकिन, हम धरती से सीखना ही नहीं चाहते। न तो हवा, पानी, पेड़, वक्त या चिड़ियों से। शायद सीखने की हमारी अच्छी आदत सोशल मीडिया के चकाचैध में कहीं गुम हो गई है। हम धरती से पाना तो बहुत चाहते हैं, लेकिन लौटाना बिल्कुल नहीं। बिडंबना यह कि हमारे अंदर शिकायतों की इतनी लंबी सूची तैयार हो गई है कि उनका समाधान शायद कोई कर पाए।
याद हैं कालिदास की शकुंतला के वे उद्गार, जो उन्होंने अपने बगीचे के पौधों में पानी देते हुए कहा था- मेरा फूलों से, हवा से, जल से और यहां की मिट्टी से मेरे बचपन का संबंध है। मैंने इनसे बहुत कुछ सीखा है। क्योंकि इनके साथ ही वे खेल-कूद कर इतनी बड़ी हुई हैं। हम सबकी जिंदगी भी धरती मां के आंचल में ही पली-पढ़ी। लेकिन मां की ममता, उसकी हिफाजत का ढंग और उसका आह्लादित कर देने वाला वात्सल्य हम विकास के हिचकोलों में भूल गए। धरती मां आज भी पुकार रही है, कभी कान लगा कर सुनो-सीखो।