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केरल की एक वरिष्ठ नन सिस्टर लूसी ने अपनी साथी नन के साथ एक बिशप द्वारा किए दुष्कर्म के खिलाफ विरोध दर्ज कराने का निर्णय लिया
गीता भट्ट। केरल की एक वरिष्ठ नन सिस्टर लूसी ने अपनी साथी नन के साथ एक बिशप द्वारा किए दुष्कर्म के खिलाफ विरोध दर्ज कराने का निर्णय लिया। इसके बाद सिस्टर लूसी को वेटिकन की अनुमति से ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त करने और पुस्तक प्रकाशित करने जैसे कारण बताकर, चर्च की अवज्ञा करने के लिए न केवल बर्खास्त कर दिया गया, बल्कि चर्च द्वारा संचालित विद्यालय में शिक्षिका के रूप में प्राप्त वेतन से भी वंचित कर दिया गया। देश की 75वीं स्वतंत्रता दिवस की बेला पर न केवल एक नन, बल्कि एक पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश भी एक भारतीय महिला के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है। इस राष्ट्र की सामूहिक चेतना को अंतरावलोकन कर समाज में समान अधिकारों को बहाल करने का आह्वान करना होगा, जो हमारी विरासत के साथ संविधान में भी निहित है।
एक बहुलवादी समाज के रूप में भारत हमेशा समावेशी रहा है, जहां सभी विविधता में सह-अस्तित्व का सम्मान करते हैं। हालांकि बदलते सामाजिक परिवेश में समाज के कई समुदाय स्वयं दमनकारी, रूढ़िवादी प्रथाओं और रीति-रिवाजों पर मंथन कर उन्हें त्यागने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि एक ऐसी सामाजिक संरचना विकसित हो जो समान मौलिक व नागरिक अधिकारों में विश्वास करती हो। महिलाओं और समाज सुधारकों ने बार बार आगाह किया है कि धार्मिक प्रथाओं की आड़ में, कई रीति-रिवाज लैंगिक भेदभाव करते हैं और महिलाओं को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखतें हैं। आगरा और अवध के संयुक्त प्रांतों की 1911 की जनगणना रिपोर्ट में कहा गया है कि उस समय हिंदू कानूनी रूप से बहुविवाह कर सकते थे, लेकिन व्यवहार में यह असामान्य था। हिंदू समुदायों में वैदिक विरासत और रीति-रिवाजों के अनुसार वैवाहिक संबंधों की पवित्रता जीवनोपरांत भी मानी जाती है।
वैवाहिक जीवन में तलाक एक असंभव विकल्प था। बदलते सामाजिक परिप्रेक्ष्य में महिलाओं ने विवाह में अलग होने का वैध अधिकार दिए जाने की मांग वर्ष 1930 में ही उठाई थी। भारत की संसद ने वर्ष 1950 के बाद हिंदू कोड बिल के द्वारा हिंदू महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिए। इस संदर्भ में 19वीं और 20वीं सदी में प्रतिक्रियावादी ताकतों को दरकिनार करते हुए सामाजिक परिवर्तनों ने भारतीय समाज को रूढ़िवाद से मुक्त किया। संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत किए गए संवैधानिक प्रविधान सभी भारतीय नागरिकों को समानता के अधिकार, भेदभाव और शोषण से संरक्षण प्रदान करते हैं। विडंबना यह है कि हमारा संविधान अभी भी सिस्टर लूसी जैसी महिलाओं के नागरिक अधिकारों की रक्षा करने में सक्षम नहीं है। भारतीय संदर्भ में एक पंथनिरपेक्ष राज्य सर्वधर्म समभाव का पालन करता है, परंतु सभी समुदायों की महिलाओं को समान कानूनी सुरक्षा प्रदान करने में शासन की सीमाएं हैं।
समाज में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के आधार पर कानूनों का सीमांकन वास्तव में एक राष्ट्र के पंथनिरपेक्ष होने पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान सभा में अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा भी यह प्रश्न उठाया गया है। संविधान सभा के उपाध्यक्ष रहे एचसी मुखर्जी जो ईसाई मत के अनुयायी थे, उन्होंने अल्पसंख्यक होने के आधार पर विधानमंडल में सीटों के आरक्षण प्रस्ताव का विरोध किया। संविधान सभा में बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाले तजामुल हुसैन ने कहा था कि अंग्रेज देश छोड़कर चले गए हैं और अब 'अल्पसंख्यक' शब्द को हमारे शब्दकोश से हटा देना चाहिए। बाबा साहब आंबेडकर ने संविधान सभा में समान नागरिक अधिकारों पर विचार करते हुए कहा था कि वर्ष 1937 तक उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत जैसे हिस्सों में उत्तराधिकार के मामले में एक ही कानून हिंदुओं और मुसलमानों को शासित करता था। बाबा साहब ने सदन को यह भी बताया था कि केरल के उत्तरी मालाबार में मातृ सत्तात्मक मरुमक्कथायम कानून हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों पर भी लागू होता था। परंतु रूढ़िवादी सोच और आस्था की ढाल के पीछे छिपकर सभी समुदायों को समान सामाजिक व नागरिक अधिकारों से वंचित रखा गया और समान नागरिक संहिता को अनुच्छेद 44 के अंतर्गत राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में डाल दिया गया।
यद्यपि वर्तमान सरकार ने तलाक कानूनों में असमानता को दूर करने के लिए मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक लाकर मुस्लिम महिलाओं को समान अधिकार देने की ओर कदम उठाया है, लेकिन बहुविवाह और हलाला जैसे रीति-रिवाज अभी भी लैंगिक न्याय पर हावी हैं। बहुविवाह की स्थिति में, हिंदू से विवाहित महिला के लिए कानून उसके अधिकारों की रक्षा करता है, परंतु मुस्लिम से विवाह करने पर वही कानून लाचार है। पारसी समुदाय की महिलाओं ने भी 1936 के पारसी विवाह और तलाक अधिनियम पर अपनी चिंता व्यक्त की है। अधिनियम के अनुसार पारसियों के वैवाहिक मुद्दों को विशेष पारसी अदालतों द्वारा निपटाया जाता है जहां न्यायाधीश के साथ पारसी समुदाय से प्रतिनिधि सदस्य भी होते हैं जो न्यायाधीश को सुझाव देते हैं। इसी संदर्भ में पारसी महिलाओं ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है और संहिताबद्ध कानूनों के अधीन पारिवारिक अदालतों के तंत्र को लागू करने की अपील की है।
राष्ट्रीय अस्मिता व एकता को सुदृढ़ करने के लिए संविधान में निदेशक सिद्धांतों के तहत अनुच्छेद 44 में दिए सार्वभौमिक सिद्धांत, जिनकी परिकल्पना बाबा साहेब आंबेडकर और अन्य संविधान निर्माताओं द्वारा की गई थी, उन्हें जीवंत करना आवश्यक है। उम्मीद की जानी चाहिए कि स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की पृष्ठभूमि में आस्था और पंथ से परे मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के समान कानून राष्ट्रीय अस्मिता के सूत्रधार बनेंगे।
(लेखिका- निदेशिका, नान कालेजिएट वूमेंस एजुकेशन बोर्ड, दिल्ली विश्वविद्यालय)
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