सम्पादकीय

कैलेंडर : अब बांग्ला नव वर्ष पर आफत, अरब संस्कृति का वर्चस्व स्थापित करने में लगे कट्टरपंथी

Neha Dani
19 April 2022 1:46 AM GMT
कैलेंडर : अब बांग्ला नव वर्ष पर आफत, अरब संस्कृति का वर्चस्व स्थापित करने में लगे कट्टरपंथी
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नहीं पता कि आने वाले दिनों में बांग्लादेश के कट्टरपंथी और किन चीजों पर प्रतिबंध लगाएंगे।

हर साल 14 या 15 अप्रैल को बांग्ला नववर्ष मनाया जाता है। बांग्ला कैलेंडर के हिसाब से बैसाख का पहला दिन होने के कारण इसे 'पयला बैसाख' कहते हैं। चूंकि पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश की संस्कृति एक है, इसीलिए दोनों बंगाल में नए साल की धूम रहती है। यह भी तथ्य है कि अभी तक पश्चिम बंगाल की तुलना में बांग्लादेश में बांग्ला नववर्ष का समारोह ज्यादा धूमधाम से मनाया जाता रहा है। लेकिन बांग्लादेश में चूंकि कट्टरपंथी लोग बांग्ला संस्कृति को खत्म कर अरबी संस्कृति का वर्चस्व स्थापित करने में लगे हैं, ऐसे में, भविष्य में वहां इस धर्मनिरपेक्ष त्योहार का आयोजन इसी धूमधाम के साथ हो सकेगा, इसमें संदेह है।

हालांकि बांग्लादेश में बांग्ला संस्कृति पर यह पहला हमला नहीं है। मोहम्मद इरशाद जब राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने बांग्ला नववर्ष की तारीख 14 अप्रैल तय कर दी थी, जबकि पश्चिम बंगाल में 15 अप्रैल को नया साल मनाया जाता है। इरशाद ने वह निर्देश इसलिए जारी किया था, ताकि बांग्लादेश के मुस्लिम पश्चिम बंगाल के हिंदुओं से अलग दिखें। बांग्लादेश में नए साल के लिए जिस तरह 14 अप्रैल की तारीख तय कर दी गई है, उस तरह ईद और रोजे की तारीख तय नहीं की गई। इस सोच को मूर्खता के सिवा और क्या कहेंगे!
बांग्लादेश एक मुल्क के रूप में जन्मा ही इसलिए था कि पाकिस्तान की कट्टर इस्लामी संस्कृति से वह अलग होना चाहता था। लेकिन विडंबना देखिए कि अस्तित्व में आने के कुछ साल बाद से ही बांग्लादेश में इस्लामी तत्व प्रबल होने लग गए थे। यही तत्व आज बांग्ला नववर्ष को हेय दृष्टि से देखते हैं। इन्हीं तत्वों ने बांग्ला कैलेंडर को मुसलमानी कैलेंडर में बदल दिया है। बांग्ला कैलेंडर के पीछे मुगल बादशाह अकबर का योगदान जरूर है, लेकिन उसका इस्लाम धर्म से लेना-देना नहीं है। सिर्फ खेती, फसल और लगान वसूली में सुविधा के लिए अकबर के समय हिजरी कैलेंडर की जगह बांग्ला कैलेंडर की शुरुआत की गई थी।
चैत संक्रांत को मेरी नानी कोई कड़वा व्यंजन जरूर बनाती थीं। उन्होंने अपनी मां से यह सीखा था। उनकी मां ने, जाहिर है, अपनी मां से सीखा होगा। परंपरा और संस्कृति इसी तरह निर्मित होती हैं। हालांकि अब हमारी खाला और मामी चैत संक्रांत को कड़वा कुछ नहीं बनातीं, न ही खाती हैं। मुझे याद है कि चैत संक्रांत के दिन गांवों में चड़क पूजा (बंगाल में चैत के अंतिम दिन भगवान शिव के सम्मान में मनाया जाने वाला एक लोक त्योहार) होती थी। मेरे दोनों बड़े भाई बांसवन पार कर पूजा देखने जाते थे और वहां बांस-रस्सी का खेल हैरत से देखते थे।
उसी दिन सब लोग लोकनाथ पंचांग खरीदते थे। मेरे भैया भी पंचांग खरीदकर लाते थे। नए साल के दिन जगह-जगह मेले लगते थे, जिनमें मिट्टी के बर्तन और बेंत व लकड़ी के सामान बिकते थे। पश्चिम बंगाल में भी बैसाख के पहले दिन मेले लगते थे, अब भी लगते होंगे। मैंने बचपन में देखा है कि बांग्लादेश में नए साल के उत्सव में हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध और ईसाई-सभी उत्साह के साथ भाग लेते थे। उस दिन गांव में नौका दौड़ और कुश्ती के आयोजन होते थे। बचपन में नए साल की सुबह से ही मैं अपनी सहेलियों के साथ बांसुरी बजाती और गुब्बारों से खेलती।
शाम को मेले में जाती थी, जहां मिट्टी के बर्तन व चीनी से बने हाथी-घोड़े बिकते थे। बांग्ला नववर्ष का वह उत्सव बांग्लादेश में अब नहीं है। सुनती हूं कि अब नववर्ष का उत्साह शहरों में ही थोड़ा-बहुत दिखता है। कवि-साहित्यकारों ने इसे किसी तरह बचाकर रखा है। ढाका के रमना में, जो एक प्रशासनिक इलाका है और जहां ब्रिटिशकालीन इमारतें हैं, कवि-कलाकार इकट्ठा होते हैं और फिर पूरे दिन कविता पाठ और गाना चलता है। वहां नए साल की सुबह से ही बांग्ला संस्कृति के प्रेमी जुटते हैं। वहां चारों ओर तांत की साड़ी और कुर्ते-पाजामे में लोगों की भीड़ दिखती है।
वर्ष 1967 से ही 'छायानट' नाम का गायकों का एक समूह रमना में नए साल का उत्सव मनाता है। इस समूह ने पाकिस्तानी शासन के दौरान भी नया साल मनाकर इस्लामाबाद को चुनौती दी थी। वही छायानट आज उन कट्टरपंथियों के निशाने पर है, जो बांग्ला संस्कृति की जगह इस्लामी संस्कृति को महत्व देते हैं। इसके अलावा ढाका विश्वविद्यालय के चारुकला इंस्टीट्यूट के नेतृत्व में नए साल पर ढाका में एक शोभायात्रा भी निकलती रही है। जिन-जिन सड़कों से यह शोभायात्रा गुजरती है, उन्हें एक रात पहले ही अल्पना से सुसज्जित कर दिया जाता है।
शोभायात्रा में धोती-कुर्ता पहने पुरुषों और साड़ी पहनी महिलाओं को नाचते-गाते देखना एक अद्भुत अनुभव था। नए साल के मेलों में कई जगह केले के पत्ते पर खिचड़ी प्रसाद खिलाने और रात भर कीर्तन चलने की याद मुझे अब भी है। कुछ मेलों में कठपुतली नाच और सर्कस भी होते थे। वे दिन अब बीत चुके हैं। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश की संस्कृति पहले एक ही थी। लेकिन बांग्लादेश में इस साझा संस्कृति के बीच धर्म की दीवार खड़ी कर दी गई है। मैं बांग्लादेश में कट्टरता को खत्म नहीं कर सकती, क्योंकि वर्षों पहले मुझे वहां से खदेड़ दिया गया है।
मैं पश्चिम बंगाल में नए साल के उत्सव को और बेहतर ढंग से मनाए जाने की अपील भी नहीं कर सकती, क्योंकि वहां से भी मुझे भगा दिया गया है। मैं सिर्फ एक ही अपील कर सकती हूं कि पहले की तरह दोनों बंगाल में नया साल एक ही दिन मनाया जाए। इससे कम से कम यह तो मालूम होगा कि यह नववर्ष हिंदू या मुसलमानों का नहीं, बंगालियों का है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से मैं सुन रही हूं कि बांग्लादेश के कट्टरपंथियों ने यह घोषणा कर रखी है कि वे बांग्ला नववर्ष पर किसी तरह का उत्सव नहीं चाहते।
वे भले न चाहते हों, लेकिन जो इस बांग्ला संस्कृति को जिलाए रखना चाहते हैं, उन्हें तो नया साल मनाने दें। लेकिन वहां अब बांग्ला नववर्ष का विरोध बढ़ने लगा है। खान-पान और वेश-भूषा के साथ अब वहां की संस्कृति पर भी अरब का प्रभाव मजबूत होता जा रहा है। लोग अपने धर्म के प्रति कट्टर होते जा रहे हैं। जिस कट्टरता के विरोध में बांग्लादेश बना था, आज वह उसी कट्टरता को स्वीकारता जा रहा है। नहीं पता कि आने वाले दिनों में बांग्लादेश के कट्टरपंथी और किन चीजों पर प्रतिबंध लगाएंगे।

सोर्स: अमर उजाला


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