सम्पादकीय

गणना से नफा हो, नुकसान नहीं

Gulabi
25 Aug 2021 2:54 PM GMT
गणना से नफा हो, नुकसान नहीं
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ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण देने की मंडल आयोग की सिफारिश 50 फीसदी आरक्षण की सीमा का प्रत्यक्ष परिणाम ही थी।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार के एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने देश में जातिगत जनगणना की मांग को लेकर सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। बैठक के बाद मीडिया से बात करते हुए बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव (राजद) ने सुझाव दिया कि सामान्य दशकीय जनगणना में जातिगत जनगणना भी की जा सकती है, आखिर यह धार्मिक समूहों और अनुसूचित जातियों (एससी) एवं जनजातियों (एसटी) की अलग से गणना करती ही है। इस तरह के सुझाव निस्संदेह तार्किक जान पड़ते हैं, लेकिन इससे जातिगत जनगणना का मकसद पूरा नहीं हो सकता। आखिर क्यों? इसकी चार वजहें हैं।

पहली, तर्क यह दिया जा रहा है कि भारत ने 1931 के बाद से जातीय जनगणना नहीं की है। मगर हमें इनकी कमोबेश संख्या तो पता है। अंग्रेज हुकूमत 1881 से लेकर 1931 तक दशकीय जनगणना में जाति की गणना किया करती थी। मगर इसके बाद यह प्रथा बंद कर दी गई और आजाद भारत ने भी इसे फिर से शुरू नहीं किया। हालांकि, जनगणना में एससी-एसटी की आबादी की गिनती होती रही है। जनगणना में सिर्फ एससी-एसटी की गणना करने का मतलब यह नहीं है कि भारत की आबादी में मौजूद सामाजिक विभाजन से हम अनजान हैं। विभिन्न सरकारी सर्वेक्षणों में, जैसे राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) में एससी-एसटी और अन्य पिछडे़ वर्गों (ओबीसी) की व्यापक हिस्सेदारी दर्ज की ही जाती है। चूंकि जनगणना के विपरीत जातिगत हिस्सेदारी का पता सर्वे आधारित अनुमान से होता है, इसलिए इस पर राजनीतिक बहस होती है। इस बहस में अक्सर यह बात भुला दी जाती है कि एनएफएचएस-एनएसएसओ के ताजा अनुमान मंडल आयोग की रिपोर्ट के अनुमान से बहुत अलग नहीं हैं।
दूसरी वजह, जातीय जनगणना की मांग सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण नीति से गहरे रूप में नत्थी है। यह एक अनुकूल सांख्यिकीय गणना नहीं है। ऐसे दो कारक हैं, जो मायने रखते हैं- आरक्षण के लिए पात्र लोगों की सूची में अधिक से अधिक सामाजिक समूहों को शामिल करने की अनवरत इच्छा और दूसरा, देश में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय करने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर विचार करने की मांग। मगर आरक्षित श्रेणी में अधिक समुदायों को शामिल करने से उन समूहों की संभावनाएं कम हो जाएंगी, जो पहले से आरक्षण व्यवस्था का लाभ उठा रहे हैं। ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण देने की मंडल आयोग की सिफारिश 50 फीसदी आरक्षण की सीमा का प्रत्यक्ष परिणाम ही थी।
रिपोर्ट स्पष्ट कहती है कि ओबीसी की आबादी (हिंदू और गैर-हिंदू, दोनों) भारत की कुल जनसंख्या की लगभग 52 फीसदी है। लिहाजा, केंद्र सरकार के अधीन सभी पदों में उसे 52 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय सीमा से खिलाफ जा सकता है। चूंकि ओबीसी के लिए प्रस्तावित आरक्षण इतना होना चाहिए, जो एससी और एसटी के लिए 22.5 प्रतिशत के साथ जोड़ने पर भी 50 फीसदी के नीचे रहे, इसलिए मंडल आयोग केवल 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश करने को बाध्य है, भले ही ओबीसी की आबादी आरक्षण से करीब दोगुनी हो। हालांकि, सांविधानिक रूप से कहें, तो ओबीसी आरक्षण एससी-एसटी आरक्षण के समान नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि एससी-एसटी आरक्षण के विपरीत, ओबीसी क्रीमी लेयर में आते हैं और एक सीमा के बाद वे आरक्षण का लाभ नहीं उठा सकते।
तीसरी वजह, ओबीसी को आरक्षण का पूरा फायदा नहीं मिला है, हां, इससे उसे मदद जरूर मिली है। 17 जुलाई, 2019 को केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में एक लिखित उत्तर में बताया था कि एससी और एसटी का प्रतिनिधित्व आरक्षण के निर्धारित प्रतिशत (क्रमश: 15 और 7.5 फीसदी) से अधिक है। केंद्र सरकार की सेवाओं में ओबीसी की हिस्सेदारी 21.57 प्रतिशत है, जो उनके लिए आरक्षित सीमा से कम है। हालांकि, सितंबर, 1993 में शुरू होने के बाद से इसमें सिलसिलेवार वृद्धि ही हुई है। मौजूदा जानकारी के मुताबिक, 1 जनवरी, 2012 को ओबीसी की हिस्सेदारी 16.55 प्रतिशत थी, जो बढ़कर 1 जनवरी, 2016 को 21.57 फीसदी हो गई है।
सवाल यह है कि इन लाभों ने वर्तमान में ओबीसी के रूप में वर्गीकृत बडे़ समूह के भीतर उप-जातियों की किस हद तक मदद की है? यही वह तथ्य है, जिसने मोदी सरकार को 2017 में ओबीसी के उप-वर्गीकरण पर न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग का गठन करने को मजबूर किया। केंद्रीय सूची में 2,633 अन्य पिछड़ी जातियां हैं और इस साल की शुरुआत में आयोग ने उन्हें चार उप-श्रेणियों (1, 2, 3 और 4) में बांटने का प्रस्ताव रखा और 27 फीसदी को क्रमश: 2, 6, 9 और 10 प्रतिशत में बांटने की सिफारिश की। यदि यह मान लिया जाता है, तो इनका राजनीति पर बड़ा असर पड़ सकता है। विशेष तौर पर उत्तर भारत में, जहां यादव जैसे शक्तिशाली ओबीसी जाति के उदय ने 1990 के दशक को परिभाषित किया है। रोहिणी आयोग की सिफारिशें देश में एक बड़ी राजनीतिक बहस को जन्म देंगी, क्योंकि दबदबा रखने वाली ओबीसी जातियां, जिनके बारे में रोहिणी आयोग का मानना है कि वर्तमान नीति से उन्हें असमान रूप से फायदा पहुंचा है, अपना रुतबा गंवा सकती हैं।
चौथी वजह, सामान्य जनगणना के साथ जातिगत जनगणना को जोड़ने से ओबीसी के भीतर समानता लाने वाले कारकों को मदद नहीं मिल सकती। ओबीसी आरक्षण में वर्ग को ध्यान में रखना चाहिए, न कि जाति को। मौजूदा सरकार ने पहले ही 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण के पुनर्गठन के लिए तैयारी शुरू कर दी है। इसका मतलब है कि एससी-एसटी समूहों के साथ ओबीसी की एक सरल गणना ओबीसी में समानता लाने में मददगार नहीं होगी। इतना ही नहीं, इस तरह की किसी भी कवायद में विभिन्न उप-जातियों की आर्थिक स्थिति की जानकारी जुटानी चाहिए, जो जनगणना में संभव नहीं है। हालांकि, जिन समुदायों को ओबीसी के रूप में परिभाषित किया गया है, उनकी आर्थिक स्थिति समान है, जैसे दावे पर सवाल उठाने के हमारे पास पर्याप्त सुबूत हैं। जाहिर है, अगर आर्थिक पैमाने के साथ एक व्यापक जातिगत जनगणना आयोजित की जाती है और उसके आंकडे़ कुछ समूहों को उनके मौजूदा लाभों से वंचित करने का प्रयास करते हैं, तो देश को एक बड़े सामाजिक-राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ सकता है।
रोशन किशोर, आर्थिक समीक्षक हिन्दुस्तान टाइम्स
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