सम्पादकीय

राहुल गांधी को उस्मानिया विश्वविद्यालय में जाने से रोककर के. चंद्रशेखर राव उन्हें कद से बड़ा नेता बना रहे हैं

Rani Sahu
3 May 2022 2:05 PM GMT
राहुल गांधी को उस्मानिया विश्वविद्यालय में जाने से रोककर के. चंद्रशेखर राव उन्हें कद से बड़ा नेता बना रहे हैं
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) एक अजब स्थिति में फंसे हुए हैं

आशीष मेहता

राहुल गांधी (Rahul Gandhi) एक अजब स्थिति में फंसे हुए हैं. जैसा कि कहावत है कि उनको पसंद करो या उनसे नफरत करो, लेकिन आप उनको नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं. ये उन पर लागू नहीं होती है क्योंकि कई जगहों पर और कई बहस में उनको नजरअंदाज किया जाता है. एक तो सोशल मीडिया (Social Media) पर उनको स्टैंड अप कॉमेडियन घोषित कर दिया गया है. हालांकि ये एक पेड कैंपेन ही ज्यादा लगती है, भले ही इसमें हमारे प्रधानमंत्री के महान नेतृत्व गुणों को पेश करने जितना पैसा न लगा हो. वहीं दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष-उदारवादी टिप्पणीकारों की ओर से यह निष्कर्ष निकाल दिया गया है कि अगर प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) के आगे कोई चुनौती नहीं टिक पा रही है तो उसके जिम्मेदार सिर्फ राहुल गांधी ही हैं.
लेकिन कभी-कभी राहुल गांधी अपने हास्य चित्रों से बाहर निकलकर बोलते भी हैं. और अच्छा बोलते हैं – फिर चाहे इसके लिए उनके सलाहाकारों को धन्यवाद दिया जाए या फिर इसका कोई और कारण क्यों न हो. सार्वजनिक बहस में उनकी भागीदारी ऐसी वजनदार होनी चाहिए कि लगे वाकई विपक्ष का नेता बोल रहा है. उनकी कमजोरियां कुछ और हो सकती हैं – संगठनात्मक और रणनीतिक क्षमता या फिर अचानक सामने आने वाले अस्थिर हावभाव – लेकिन वे मूल्य और सिद्धांत नहीं जिनकी वो कसमें खाते हैं. उनकी राय अक्सर अच्छी तरह से सोची-समझी होती है जिसमें वह अच्छे उदाहरण भी जोड़ते हैं (इसका मतलब हुआ कि वह एक अच्छे लेखक-कमेंटेटर हो सकते हैं – बस इसके लिए शर्त ही है कि उनके विचार किसी लेखक-कमेंटेटर की ओर से न लिखे गए हों.)
स्वतंत्रता के अधिकार पर कई तरीके से प्रतिबंध लगाया जा सकता है
लेकिन अब उन्हें उस्मानिया विश्वविद्यालय, जिसका छात्र राजनीति का एक लंबा और गौरवशाली इतिहास है, में वैश्विक हालात पर अपना नजरिया सामने रखने की अनुमति नहीं दी जा रही है. प्रशासन ने उन्हें छात्रों के साथ 'गैर-राजनीतिक' चर्चा में शामिल होने की अनुमति देने से इनकार कर दिया है. इस फैसले के पीछे 2017 के एक प्रस्ताव का हवाला दिया गया है जिसमें परिसर में गैर-शैक्षणिक गतिविधियों के आयोजन पर रोक लगाई गई थी. हालांकि, किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता को विश्वविद्यालय में जाने से रोकने के लिए यह कोई दमदार स्पष्टीकरण नहीं है – फिर चाहे वह राहुल गांधी हों या कोई और.
राहुल गांधी ने अपने कदम न रोकते हुए इस सप्ताह में तेलंगाना की अपनी यात्रा के दौरान छात्रों से मिलने का फैसला किया है. मुद्दा यह नहीं है कि वे अपनी बातचीत के दौरान क्या कहते हैं और क्या नहीं – लेकिन मुद्दा है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का. यह सही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर कई तरीके से प्रतिबंध लगाया जा सकता है, मसलन कानून और व्यवस्था पर जब किसी से खतरा हो तो उसके इस अधिकार पर रोक लगाई जा सकती है. हालांकि, जब पहली बार नरसंहार के आह्वान के बाद भी 'धर्म संसद' के दूसरे संस्करण की अनुमति दी जा सकती है (भले ही शर्तों के साथ), तब समझ में नहीं आता है कि हमारा समाज अभिव्यक्ति की अप्रतिबंधित स्वतंत्रता को कितना महत्व देता है.
राहुल गांधी को विश्वविद्यालय से दूर रखने के फैसले के पीछे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव का इशारा माना जा रहा है और हो सकता है कि तब ऐसी बारीकियां उनके दिमाग में आई ही न हों. पिछले कुछ महीनों से वे विपक्षी दलों को एक साथ लाने का प्रयास कर रहे हैं. बेशक कांग्रेस इसका हिस्सा नहीं है. उदाहरण के लिए, पिछले कुछ समय में उन्होंने महाराष्ट्र पर शासन करने वाले तीन सहयोगियों में से दो – एनसीपी के शरद पवार और शिवसेना के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे (कांग्रेस को छोड़कर) के साथ-साथ पश्चिम बंगाल (टीएमसी की ममता बनर्जी) और तमिलनाडु में अपने समकक्ष (डीएमके के एम.के. स्टालिन) से मुलाकात की है.
ये चंद्रशेखर राव का बिना सोचे समझे लिया गया फैसला लगता है
वैसे तीसरे मोर्चे के गठन का उनका सपना नया नहीं है, 2019 के आम चुनावों से पहले भी लोकसभा के लिए वह इसे साकार करने के प्रयास कर चुके हैं. हालांकि परेशानी यह है कि कई पार्टियां इन दिनों तीसरे मोर्चे को बनाने की प्रक्रिया में हैं. पश्चिम बंगाल में बीजेपी को निर्णायक रूप से हराने के बाद ममता बनर्जी भी अपने नेतृत्व वाले तीसरे मोर्चे का सपना देखती हैं. हाल ही में पंजाब विधानसभा चुनाव जीतने के बाद आप के अरविंद केजरीवाल भी विपक्षी दल के नेता होने का दावा कर रहे हैं.
वैसे देखा जाए तो इनमें से हर क्षेत्रीय सत्ताधारी पार्टी केवल अपने क्षेत्र में ही मजबूत है और इनमें से केवल आप ही अपने कदम दूसरी जगह जमाने में सफल रही है. बावजूद इसके, हर क्षेत्रीय नेता खुद को तीसरे मोर्चे में शीर्ष भूमिका के स्वाभाविक दावेदार के रूप में देखता है. इसी बीच कांग्रेस भले ही पहले की तुलना में उतनी शक्तिशाली न रही हो, लेकिन देश भर में उसकी मौजूदगी तो दर्ज है ही. इसलिए केंद्र शासित मजबूत पार्टी बीजेपी से टक्कर लेने के लिए के. चंद्रशेखर राव और बाकियों को कांग्रेस से दूरी बनाने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करना होगा.
अगर वे देश भर में अत्यधिक लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी को गंभीरता से चुनौती देना चाहते हैं, तो के. चंद्रशेखर राव सहित तमाम विपक्षी नेताओं को पहले आंतरिक अहंकार की लड़ाई से बचना सीखना होगा. ऐसे में राहुल गांधी को उस्मानिया विश्वविद्यालय में बैठक करने से रोकने की कोशिश करना के. चंद्रशेखर राव का बिना सोचे समझे लिया गया फैसला लगता है. राहुल गांधी को परिसर के अंदर नहीं जाने देने से हो सकता है कि के. चंद्रशेखर राव को लग रहा हो कि वह विपक्षी खेमे में ताक-झांक कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं जानते कि इस तरह अनजाने में वो राहुल गांधी को उनके मौजूदा कद से बड़ा नेता बना रहे हैं.
Rani Sahu

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