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- आपातकाल के सहारे
Written by जनसत्ता: श्रीलंका फिलहाल जिस तरह के उथल-पुथल से गुजर रहा है, उससे समझा जा सकता है कि वहां की सत्ता कैसे अदूरदर्शी नेताओं के हाथ में कैद रही। उनकी लगातार अहं में जकड़ी जिद और मनमानी नीतियों का ही नतीजा है कि देश की आम जनता को वहां की सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंकना पड़ा। पहले वहां लोगों ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया और प्रधानमंत्री के आवास में आग लगा दी। ताजा खबर यह है कि खुद राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे सैन्य विमान से मालदीव भाग गए, जबकि उन्होंने तेरह जुलाई को इस्तीफा देने की घोषणा की थी।
चारों तरफ पसरी अराजकता से निपटने का रास्ता फिलहाल आपातकाल की घोषणा को माना गया है। हालांकि यह एक नाजुक दौर था जब जनता को यह विश्वास दिलाया जाता कि देश के सामने जो समस्या खड़ी हो गई है, वहां का सत्ता-तंत्र उससे निकलने का रास्ता निकालेगा। मगर देश के पश्चिमी प्रांत में कर्फ्यू लगा दिया गया है और इसके साथ ही प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने उपद्रव कर रहे लोगों को गिरफ्तार करने और उनके वाहन जब्त करने का आदेश दे दिया है।
श्रीलंका में बिगड़े हालात पर काबू पाने के लिए सरकार ने जिस तरह के कदम उठाने की घोषणा की है, उससे जनता के उग्र प्रदर्शनों को दबाने में तात्कालिक तौर पर मदद मिल सकती है। मगर सवाल है कि जिन नीतियों और फैसलों की वजह से श्रीलंका इस दशा में पहुंच गया है, क्या जनता पर सख्ती उसका समाधान है? आखिर राष्ट्रपति को देश छोड़ कर भागने की नौबत आई, तो इसके पीछे इतनी बड़ी वजह तो होगी ही कि वे जनता और उसके सवालों का सामना करने में खुद को समर्थ नहीं पा रहे थे।
किसी भी देश के शासक को इस बात का अहसास हो जाना चाहिए कि वहां जो नीतियां लागू की जा रही हैं, उनका असर क्या पड़ेगा। जब गोटबाया राजपक्षे श्रीलंका की सत्ता पर संपूर्ण नियंत्रण अपने पास केंद्रित कर रहे थे, आर्थिक मसलों पर बिना किसी की सहभागिता और अन्य पक्षों से विचार-विमर्श के फैसले ले रहे थे, तब क्या उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि इसके नतीजे क्या होने वाले हैं? अब आज श्रीलंका में हालात पूरी तरह हाथ से निकल गए हैं, वहां पेट्रोल या डीजल तो दूर, लोगों के सामने भोजन तक संकट खड़ा हो गया है तो इसके लिए क्या उनका रुख ही मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं है?
देश के संसाधनों के समुचित उपयोग के जरिए आत्मनिर्भरता की जमीन मजबूत करने के बजाय अंतरराष्ट्रीय बैंकों या अन्य देशों के कर्ज के जाल में फंसा कर किसका हित किया जाता है? किसी भी स्थिति में लिए गए कर्ज का भुगतान किसे और किस रूप में करना पड़ता है? दरअसल, श्रीलंका इस बात का साक्षात उदाहरण है कि पद हासिल करने के बाद निजी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए कैसे कोई नेता समूचे देश को अपनी अदूरदर्शिता के झंझावात में झोंक देता है। लापरवाही से भरे नीतिगत फैसलों और कई स्तरों पर लिए गए कर्ज ने श्रीलंका को इस दशा में पहुंचा दिया कि लोगों को अराजक होने के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखा। फिलहाल विपक्ष ने वहां रानिल विक्रमसिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति मानने से इनकार कर दिया है।
अब वहां सर्वदलीय सरकार का गठन करके जनता के आक्रोश को थामने और समाधान की कोई राह निकालने की कोशिश हो रही है, लेकिन सवाल है कि आर्थिक मोर्चे पर देश की जो दशा हो चुकी है, उसका हल तुरंत कैसे निकलेगा? तात्कालिक तौर पर अन्य देशों या अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से मदद लेकर स्थिति संभालने की कोशिश हो सकती है, लेकिन अगर फिर से और कर्ज को ही हल के तौर पर देखा जाता है तो क्या वह संकट का एक नया जाल नहीं होगा!