सम्पादकीय

धर्म के नाम पर धंधा और नफ़रत की सियासत

Gulabi
23 Dec 2021 5:26 PM GMT
धर्म के नाम पर धंधा और नफ़रत की सियासत
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हरिद्वार में किसी धर्म संसद के लिए जुटे साधु-संत तीन दिन अल्पसंख्यकों के विरुद्ध विषवमन करते हैं
हरिद्वार में किसी धर्म संसद के लिए जुटे साधु-संत तीन दिन अल्पसंख्यकों के विरुद्ध विषवमन करते हैं. हिंदुओं को हथियार उठाने को कहते हैं. बताते हैं कि तलवारभर से काम नहीं चलेगा. बाद में भी ऐसे भाषणों पर खेद नहीं जताते. उल्टे भारतीय संविधान पर सवाल खड़े करते हैं, एक आबादी को नेस्तनाबूद करने की बात करते हैं. गोडसे की पूजा करने का भी सुझाव दे डालते हैं.
यह सच है कि साधु-संतों की दुनिया में भी ऐसे आक्रामक रवैये का स्वागत करने वाले लोग कम हैं. ज़्यादातर उदारमना लोग हैं जो मंदिर आदि भले चाहते हों, लेकिन हिंसा या नरसंहार की वकालत नहीं कर सकते. माना जा सकता है कि ये मुट्ठी भर लोग हैं और इनसे व्यापक भारतीय समाज की मानसिकता की झलक नहीं मिलती.
लेकिन कल्पना करें कि ठीक यही शब्द या ऐसी ही बातें यदि इस देश की किसी अल्पसंख्यक जमात ने की होती तो क्या होता? अब तक इन पर देशद्रोह और धार्मिक सहिष्णुता बिगाड़ने की कई धाराएं लग गई होतीं, कई लोग सलाखों के पीछे पहुंचा दिए गए होते और कई लोग एक पूरी जमात को देशद्रोही ठहरा रहे होते. यही नहीं, देश के आला मंत्री-संतरी और उनकी अभ्यर्थना में जुटे पत्रकार टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर यह उपदेश देने में जुटे होते कि देश की एकता कितनी ज़रूरी है और कुछ लोग इसमें किस तरह की बाधा डाल रहे हैं.
आगे बढ़ने से पहले इसी फ़र्क की ओर ध्यान दें. इस देश में दो अलग-अलग तबके एक ही बात नहीं कह सकते. जो बात इस देश का बहुसंख्यक तबका कह सकता है, वह अल्पसंख्यक तबका नहीं कह सकता. दोनों को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं होती हैं. ऐसा नहीं कि यह दरार पहले नहीं थी. लेकिन पहले यह सूक्ष्म थी और देश का एक बड़ा तबका मानता था कि इसे भी पाट दिए जाने की ज़रूरत है. लेकिन यह दरार अब लगातार स्थूल और बड़ी होती जा रही है और कुछ लोग यह भरोसा दिलाने में जुटे हैं कि इसे कभी पाटा नहीं जा सकता, बल्कि वे यह माहौल बना रहे हैं कि इसे पाटा नहीं जाना चाहिए. मोटा तर्क यह है कि यह देश अस्सी फ़ीसदी हिंदुओं का है और उन्हीं की मर्ज़ी और दया पर चल रहा है. बल्कि इसी हिंदू सहिष्णुता के हवाले से बार-बार याद दिलाया जाता है कि इस देश में जो सांस्कृतिक बहुलता बची हुई है, उसके पीछे यही सहिष्णु दृष्टि है.
लेकिन दरअसल यह याद दिलाया जाना भी उस सहिष्णुता को कमज़ोर करना है जिसे इस देश की या हिंदू संस्कृति की विरासत बताया जाता है. सहिष्णुता वह चीज़ नहीं होती जिसे आप किसी एहसान की तरह पेश करें. सहिष्णुता नाम का यह एहसान इस देश पर और यहां के नागरिकों पर किसी ने किया भी नहीं है. पांच हज़ार साल के हिंदुस्तान में बहुत सारे लोग, कबीले, समुदाय आते गए और बसते गए, उन्होंने झगड़े भी किए और साथ रहना भी सीखा. उन्होंने हिंदुस्तान को तरह-तरह के नामों से पुकारा, उन्होंने तरह-तरह के धर्मों के बीज बोए, उन्होंने तरह-तरह की पूजा पद्धतियां विकसित कीं. किसिम-किसिम की भाषाएं बोलीं, सदियां बदलती गईं, बोलियां भी बदलती गईं. यह हिंदुस्तान इस पूरी समृद्ध विरासत का है. इसे बस किसी एक समुदाय का बताना, उसकी सहिष्णुता का मोहताज बताना- दरअसल इस विरासत को भी छोटा करना है, समुदाय का भी अपमान करना है.
बहरहाल, हरिद्वार की सभा पर लौटें. एक के बाद एक नफ़रत पैदा करने वाले बयानों पर भी पुलिस कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रही? इसलिए कि साधुओं की इस जमात के आगे सत्ता झुकी हुई नज़र आ रही है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री एक अन्य तस्वीर में इनके पांव छूते दिख रहे हैं. लेकिन यह अपवाद नहीं है, इन दिनों नियम है. बहुसंख्यक जमात के सांप्रदायिक तत्वों को सत्ता का संरक्षण ही नहीं, प्रोत्साहन भी हासिल है, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है. उल्टे इसका विरोध करने वाले तोहमत से लेकर जेल तक झेल रहे हैं. धर्मनिरपेक्षता को गाली बनाया जा रहा है, पंथनिरपेक्षता का मज़ाक उड़ाया जा रहा है, सांस्कृतिक बहुलता को विषाक्त किया जा रहा है. यह अपने लोकतंत्र को कमज़ोर करना है. लोकतंत्र का पैमाना यह नहीं होता कि वह अपने बहुसंख्यकों के साथ किस तरह पेश आता है, बल्कि यह होता है कि वह अपने अल्पसंख्यक समुदायों का कितना ख़याल रखता है. लेकिन एक आक्रामक बहुसंख्यकवाद इन दिनों सक्रिय है और इस लोकतांत्रिक मूल्य संहिता को बेरहमी और बेशर्मी से ठोकर लगा रहा है.
सवाल है, यह ताकत इन तत्वों को कहां से मिल रही है? हरिद्वार को मथुरा से, मथुरा को बनारस से, और बनारस को अयोध्या से मिल रही है. अयोध्या के भव्य मंदिर और काशी विश्वनाथ के विराट गलियारे के बाद मथुरा में भी अब विशाल मंदिर की बात चल रही है. यह सत्ता का धर्म के साथ गठजोड़ नहीं है, धर्म का इस्तेमाल है. लेकिन जब ऐसा इस्तेमाल होता है तो क्या होता है? यह अयोध्या में दिख रहा है. सुप्रीम कोर्ट से मंदिर बनाने की इजाज़त मिलते ही अयोध्या धंधेबाज़ों की दुकान में बदल गई है. तमाम नेता-अफ़सर, उनके रिश्तेदार ज़मीन ख़रीद रहे हैं. इस ख़रीद-फ़रोख़्त में कैसी-कैसी बेईमानियां हो रही हैं- इसकी कहानियां भी अब सामने आ रही हैं. एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस में इस पर विस्तार में रपटें आई हैं. दिलचस्प ये है कि इसके तत्काल बाद यूपी सरकार ने इसकी जांच बिठा दी है. लेकिन यह जांच भगवान राम को धंधेबाज़ लोगों से बचाने के लिए नहीं, धंधेबाज़ों को क़ानून से बचाने का काम करेगी. अंततः नतीजा यही निकलेगा कि ज़मीन ख़रीदना बेईमानी नहीं है- भले उसकी क़ीमतें कुछ ही मिनटों में बाद कई गुना बढ़ जाएं और उन्हें किसी और को बेच दिया जाए.
दरअसल दुनिया भर के धर्मों की समस्या रही है कि उन्हें धंधे में बदल दिया जाता है. असली धार्मिक लोग पीछे छूट जाते हैं. संत भी भुला दिए जाते हैं. ईसाईयत में एक दौर में पाप मुक्ति के कार्ड बेचे जाते थे. मार्टिन लूथर ने इस ईसाईयत के विरुद्ध मोर्चा खोला तो धर्म बंट गया. प्रोटेस्टेंट्स चले आए. इत्तिफ़ाक़ से यह वही समय था जब कबीर और नानक जैसे भक्त कवि और संत हिंदुस्तान में धार्मिंक कर्मकांड के विरुद्ध धर्म और विचार की नई कविता रच रहे थे. लेकिन आज न कोई कबीर को याद करता है न कबीर के राम को. लोगों को तो वाल्मीकि और तुलसी के राम का भी स्मरण नहीं है. उन्हें बस बीजेपी के राम याद हैं. यह राम वोट और नोट दिलाने के काम आते हैं, ज़मीन खरीद-फ़रोख़्त का अवसर दिलाते हैं और फ़र्जी साधु-संतों को वह हैसियत देते हैं कि वे इस देश के संविधान के ख़िलाफ़ जो मन चाहे, बोल सकें.
संकट यह है कि यह काम वे उन लोगों, समुदायों और सत्ताओं के संरक्षण में कर रहे हैं जो खुद को धार्मिक और देशभक्त कहते अघाते नहीं. देश और धर्म के नाम पर चल रही ये दुकानें अगर जल्दी बंद नहीं हुईं तो हमें बहुसंख्यकवाद की इस कथित 'सहिष्णुता' का कुछ और शिकार होना पड़ेगा.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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