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- वर्षों का बोझ
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By: divyahimachal
यह पिछले कुछ दशकों का बोझ है, जो इमारतों की शक्ल में गिर रहा है। अब तो बर्बादी के आंकड़े भी याददाश्त की सीमा से बाहर होकर डराने लगे हैं। आनी में बहुमंजिला इमारतें जिस तरह गिरीं, उस मंजर की तलाशी में हमने ही सारे गुनाह छुपाए हैं। याद करें पिछले चालीस-पचास सालों में हिमाचल ने विकास के नाम पर कैसी सामाजिक, सरकारी, राजनीतिक व न्यायिक व्यवस्था बनाई। हमारे नेताओं ने ऐसे समाज को प्रोत्साहित किया जिनके लिए प्रदेश केवल दोहन की वस्तु बन गई। सत्तर के दशक में कहने को तो हमने नगर एवं ग्राम योजना कानून बना लिया, लेकिन इसकी आत्मा को मारकर सूली पर टांग दिया। आनी पचास साल पहले ऐसा तो नहीं था। इस दौरान कितने ही चुनाव गुजरे होंगे। विधायकों ने फेरी लगाई होगी और सियासी वादों ने पूरा परिवेश नजरअंदाज किया होगा। जो पानी ऊपर से नीचे बहता रहा था, उसे इमारतों के झुंड ने रोका होगा। कंकरीट के सख्त पहरों ने जल रिसाव को भटकाया होगा। मंजिलें गिनते-गिनते व्यापार ने निर्माण से इतने समझौते कर लिए कि सारी जमीन को विद्रोह करना पड़ा। यह विद्रोह पूरे हिमाचल में जारी है, क्योंकि हमने पानी को रोकने की मशक्कत में यह नहीं सोचा कि पहाड़ की आबरू में यह गुस्ताखी कसूर बन कर सजायाफ्ता होगी एक दिन। और यह दिन देखना पड़ रहा है जब राजधानी शिमला की गिरती हुई इमारतों को थामने के लिए न हाथों में क्षमता है और न ही कायदे कानून की फेहरिस्त में प्रासंगिकता बची है। प्रदेश के हर विधायक को वोट की राजनीति ने इतना डरपोक बना दिया कि पहले वर्षों में बिना योजना के खेतों पर घर उतर आए। नदी-नालों, कूहलों व गहरी खाइयों को रोक कर लोग आबाद हो गए।
हमने कल तक जो जमीन बेकार घोषित की थी, उसे अतिक्रमण की शान बना कर पैसे कमाने का जरिया बना दिया। आज विकास के नाम पर प्रदेश में सत्ता, सियासत और समाज मिलकर यह टोह लेता है कि उद्घाटन से पहले परिसर के परिवेश में जमीन की खरीद फरोख्त में हाथ रंग लिए जाएं। प्रदेश के नए खरीददार कौन हैं। क्या सामान्य आदमी यह जुर्रत कर सकता है और क्या जमीन के इस खेल में एक माफिया तंत्र तैयार नहीं हुआ। जाहिर है पिछले दो से तीन दशकों में ‘खुला खेल फरुखाबादी’ हुआ है और इसी दौरान माफिया के गठबंधन में जमीनें बिकीं और इमारतें बिना किसी योजना कानून के उठती रहीं। अब जो गिर रहा है, उसकी जद में माफिया नहीं, आम लोग, कायदे-कानून व राज्य की विवशताएं हैं। आनी को बदनाम करने वाले चंद लोग व सियासी प्रश्रय रहा होगा, लेकिन इस सदमे की चपेट में हमारी आने वाली पीढिय़ों का भविष्य रहेगा। बहरहाल आशंकाओं के बादल हर जगर विद्यमान हैं, इसलिए बरसात-बाढ़ की राहत में वित्तीय पोषण का हिसाब-किताब एक सीमा तक सही है, लेकिन आइंदा सुधरने के लिए दृष्टि बदलनी पड़ेगी। जो लोग आपदा में सियासी सुझावों के जरिए राजधानी को बदलने तक का फरमान सुना रहे हैं, वे प्रदेश की तकलीफ को नजरअंदाज कर रहे हैं।
मसला अगर राजधानी का है, तो उन गांवों की तकदीर का भी है, जहां एक साथ दस हजार के करीब घर मिट गए। पहाड़ की दरार में गांव के गांव समाहित हो गए। बतौर समाज हमने जमीन के सौदों में पैसा नहीं लगाया, बल्कि खेतों से बहते पानी को मारने की कोशिश की। हमारे विकास की सूली पर चढ़ा पानी फिर जमीन पर उतर आया है। उसने हमें परास्त कर दिया, कहीं सडक़, तो कहीं आशियाना छीन कर पानी ने बता दिया कि उसे रोकने के मुजरिम बख्शे नहीं जाएंगे। अब वक्त आ गया है कि हिमाचल आइंदा निर्माण की आचार संहिता तथा विकास योजना के तहत ही भविष्य में विकास के हर संदर्भ को लिखे, वरना ये हरकतें सदा कफन में लिपटी रहेंगी।
Rani Sahu
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