सम्पादकीय

न्याय पर बोझ

Rani Sahu
15 April 2022 6:37 PM GMT
न्याय पर बोझ
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त्वरित न्याय ही वास्तविक न्याय होता है और त्वरित न्याय के लिए पूरे संसाधन और पर्याप्त न्यायाधीश भी होने चाहिए

त्वरित न्याय ही वास्तविक न्याय होता है और त्वरित न्याय के लिए पूरे संसाधन और पर्याप्त न्यायाधीश भी होने चाहिए। अत: अपने देश के प्रधान न्यायाधीश का यह इशारा स्वाभाविक और स्वागतयोग्य है कि न्यायपालिका पर बहुत बोझ है और पर्याप्त संख्या में अदालतें होंगी, तो ही न्याय संभव है। बीते वर्ष से ही देश की सर्वोच्च अदालत में सुनवाइयों के दौरान ट्रिब्यूनल में रिक्त पदों का मुद्दा उठता रहा है। शीर्ष अदालत की नाराजगी भी सामने आती रही है। यह अपने आप में गंभीर बात है कि देश के प्रधान न्यायाधीश न्यायपालिका में कमी को लेकर एकाधिक बार अपनी राय रख चुके हैं। प्रधान न्यायाधीश ने शुक्रवार को तेलंगाना स्टेट ज्युडिशियल कॉन्फ्रेंस 2022 को संबोधित करते हुए कहा कि 'न्यायपालिका का बुनियादी ढांचा और रिक्त पदों पर भर्तियां चिंता का मुख्य विषय हैं। न्याय तक पहुंच तभी संभव है, जब हमें पर्याप्त संख्या में अदालतें मिलेंगी।'

यह अपने आप में बेहद संवेदनशील विषय है कि न्यायपालिका में नियुक्तियों में देरी हो रही है। सरकार को देखना चाहिए कि बाधा कहां है? अदालतों ने पहले भी न्यायपालिका के विस्तार का पक्ष लिया है, लेकिन प्रशासन बहुत सजग नहीं दिखता। भारतीय न्यायपालिका पर जो बोझ है, वैसा दुनिया की किसी न्यायपालिका पर नहीं है। अभी भी मामलों को न्याय तक पहुंचने में तीस-चालीस साल भी लग जा रहे हैं। पुराने मुकदमों का निपटारा जल्दी नहीं हो रहा है और नए मुकदमे बढ़ते जा रहे हैं। यह बात अलग है कि कई मुकदमे प्रशासन की कमियों की वजह से हैं। खासकर गैर-फौजदारी मामलों में बहुत कमी आ सकती है, लेकिन प्रशासन का काम करने का तरीका निचले स्तर पर अपेक्षित गति से सुधर नहीं रहा। अदालतों के कागजी कामकाज का विस्तार भी लगातार हो रहा है, अत: न्याय में देरी ज्यादातर मामलों में एक सच्चाई है। न्याय में देरी से कुछ लोगों को फायदा होता है, लेकिन कुल मिलाकर शासन-प्रशासन की छवि खराब होती है। आम लोगों की नजर में न्याय या अन्याय अंतत: सरकार की जिम्मेदारी है। फिर भी कोई भी राजनीतिक दल त्वरित न्याय को लेकर चिंतित नहीं दिखता। किसी के भी घोषणापत्र में त्वरित न्याय सुनिश्चित करने की कोई रूपरेखा नहीं होती है। ऐसे में, हमारे न्यायाधीशों की शिकायत जायज है। क्या हमारी राजनीतिक पार्टियां लोगों को त्वरित न्याय का वादा नहीं कर सकती हैं? क्या यह लोकहित का मामला नहीं है?
आज न्यायपालिका का विस्तार जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उसमें समय के साथ आंतरिक सुधार। एक अनुमान के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय में साल भर में 200 दिन भी सुनवाई नहीं होती है। उच्च न्यायालयों में करीब 210 दिन और निचली अदालतों में करीब 245 दिन ही काम होता है। सर्वोच्च न्यायालय में करीब 73,000 मामले और भारत की सभी अदालतों में लगभग 4.40 करोड़ मामले लंबित हैं। मुकदमों की संख्या में हर साल बढ़ोतरी हो रही है। नीति आयोग के एक रणनीति पत्र के मुताबिक, अदालतों को तमाम दर्ज मामले सुलझाने में अभी के हिसाब से करीब 324 साल से अधिक समय लग जाएगा। हजारों मामले तीस-तीस साल से लंबित हैं। अत: न्यायपालिका के बोझ को हल्का करने और उसे त्वरित न्याय की दिशा में प्रेरित करने के भगीरथ प्रयासों की जरूरत है। त्वरित न्याय समाज में सुख-शांति और कानून के राज के लिए भी जरूरी है।

क्रेडिट बाय हिन्दुस्तान

Rani Sahu

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