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- मुफ्तखोरी का बोझ
मुफ्तखोरी की संस्कृति एक प्रतिकूल परंपरा है, जो न केवल राजनीति, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचाती है। 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष अर्थशास्त्री एन के सिंह ने मुफ्त उपहार योजनाओं को लेकर कुछ वाजिब सवाल उठाए हैं। साथ ही, यह भी कहा है कि अभी मुफ्त योजनाओं के अर्थ में बहुत अस्पष्टता है। वाकई हमें यह देखना चाहिए कि कौन-सी वस्तु मुफ्त देने लायक है और कौन-सी वस्तु देने लायक नहीं है। मिसाल के लिए, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत और व्यापक करना, रोजगार गारंटी योजनाएं, शिक्षा के लिए सहायता और स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से महामारी के दौरान परिव्यय बढ़ाना सही है। पूरी दुनिया में ऐसे व्यय को न्यायपूर्ण माना जाता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि दुनिया में गरीबों या अभावग्रस्त लोगों की संख्या कम से कम एक चौथाई है, उनकी आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा के प्रबंध करना हर सरकार की जिम्मेदारी है। कोरोना के समय भारत में ही 80 करोड़ लोगों तक मुफ्त अनाज पहुंचाने की कोशिश हुई, उसकी निंदा भला कौन कर सकता है? कई बार लोगों को मुफ्त सेवाएं या वस्तुएं देना जरूरी हो जाता है। ऐसे में, एन के सिंह का इशारा बिल्कुल सही है कि जरूरी और गैर-जरूरी के बीच हमें फर्क करना चाहिए
क्रेडिट बाय हिन्दुस्तान