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जंगल में इंसानों की गतिविधियों पर सख्ती से रोक लगे।
थोड़ी-सी ठंड क्या बढ़ी, देश के अलग-अलग इलाकों से कंकरीट के जंगल में हरे जंगलों के मांसाहारी जानवरों के घूमने की खबरें आने लगीं। बुंदेलखंड का छतरपुर शहर अपने आसपास का घना जंगल कोई चार दशक पहले ही चट कर चुका है और वहां की आबादी निश्चिंत थी कि अब इस इलाके पर उसका ही राज है। लेकिन अचानक ही बीते एक सप्ताह से वहां की घनी बस्तियों के सीसीटीवी में एक तेंदुआ घूमता दिख रहा है।
जिलाधीश के घर से सौ मीटर दूर शहर की सबसे घनी बस्ती में भी। पिछले महीने कानपुर में नवाब गंज के पास गलियों में तेंदुआ घूम रहा था, फिर वह उन्नाव के पास देखा गया। अब उसकी चहल-पहल लखनऊ शहर के गुडंबा थाने के पहाड़पुर चौराहे पर देखी जा रही है। गत दो सप्ताह में भोपाल और नागपुर में भी घनी बस्तियों के बीच तेंदुआ घूमता दिखा है। दिल्ली से सटे गाजियाबाद के सबसे पॉश इलाके राजनगर में तो कई बार तेंदुए को टहलते देखा गया।
यह तो सभी जानते हैं कि जंगल का जानवर इंसान से सर्वाधिक भयभीत रहता है और वह बस्ती में तभी घुसता है, जब वह पानी या भोजन की तलाश में भटकते हुए आ जाए। चूंकि तेंदुआ कुत्ते से लेकर मुर्गी तक को खा सकता है, अतः जब एक बार लोगों की बस्ती की राह पकड़ लेता है, तो सहजता से शिकार मिलने के लोभ में बार-बार यहां आता है। यदा-कदा जंगल महकमे के लोग इन्हे पिंजड़ा लगाकर पकड़ते हैं और फिर पकड़े गए स्थान के करीब ही किसी जंगल में छोड़ देते हैं। और तेंदुए की याददाश्त ऐसी होती है कि वह फिर से लौटकर वहीं आ जाता है।
तगड़ी ठंड में बस्ती में तेंदुए के आने का सबसे बड़ा कारण है कि जंगलों में प्राकृतिक जल-स्रोत कम हो रहे हैं। ठंड में ही पानी की कमी से हरियाली भी कम हो रही है। घास कम होने का अर्थ है कि तेंदुए का शिकार कहे जाने वाले हिरण आदि की कमी या पलायन कर जाना। ऐसे में भूख-प्यास से बेहाल जानवर सड़क की ओर ही आता है। वैसे भी अधिक ठंड से अपने को बचाने के लिए जानवर अधिक भोजन करता है, ताकि तन की गरमी बनी रहे।
जान लें कि घने जंगल में बिल्ली मौसी के परिवार के बड़े सदस्य बाघ का कब्जा होता है और इसीलिए परिवार के छोटे सदस्य जैसे तेंदुए बस्ती की तरफ भागते हैं। विडंबना है कि जंगल के संरक्षक जानवर हों या फिर खेती-किसानी के सहयोगी मवेशी, उनके लिए पानी या भोजन की कोई नीति नहीं है। जब कहीं कुछ हल्ला होता है, तो तदर्थ व्यवस्थाएं होती हैं, लेकिन इस पर कोई दीर्घकालिक नीति बनी नहीं।
प्रकृति ने धरती पर इंसान, वनस्पति और जीव-जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया, लेकिन इंसान ने भौतिक सुखों की लिप्सा में खुद को श्रेष्ठ मान लिया और प्रकृति की प्रत्येक देन पर अपना अधिक अधिकार हथिया लिया। यह सही है कि जीव-जंतु या वनस्पति अपने साथ हुए अन्याय का न तो प्रतिरोध कर सकते हैं और न ही अपना दर्द कह पाते हैं। परंतु इस भेदभाव का बदला खुद प्रकृति ने लेना शुरू कर दिया।
आज पर्यावरण संकट का जो चरम रूप सामने दिख रहा है, उसका मूल कारण इंसान द्वारा नैसर्गिकता में उपजाया गया, असमान संतुलन ही है। परिणाम सामने है कि अब धरती पर अस्तित्व का संकट है। समूची खाद्य शृंखला का उत्पादन व उपभोग बेहद नियोजित प्रक्रिया है। समझना जरूरी है कि जिस दिन खाद्य शृंखला टूट जाएगी, धरती से जीवन की डोर भी टूट जाएगी। हमारा आदि-समाज इस चक्र से भली-भांति परिचित था, तभी वह प्रत्येक जीव को पूजता था, उसके अस्तित्व की कामना करता था।
जंगलों में प्राकृतिक जल संसाधनों का इस्तेमाल अपने लिए कतई नहीं करता था- न खेती के लिए, न ही निस्तार के लिए और न ही उसमें गंदगी डालने को। भारत में संरक्षित वन क्षेत्र तो बहुत से विकसित किए गए और वहां मानव गतिविधियों पर रोक के आदेश भी दिए, लेकिन दुर्भाग्य है कि विकास के नाम पर पहाड़ काटे गए, जानवरों के नैसर्गिक आवागमन के रास्तों पर काली सड़कें बिछा दी गईं। यदि इंसान चाहता है कि वह जंगली जानवरों का निवाला न बने, तो जरूरत है कि नैसर्गिक जंगलों को छेड़ा न जाए, जंगल में इंसानों की गतिविधियों पर सख्ती से रोक लगे।
Neha Dani
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