सम्पादकीय

बना रहे भरोसा

Gulabi
28 April 2021 7:01 AM GMT
बना रहे भरोसा
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आज पूरा देश कोरोना वायरस के सामने जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा है

मनीष मिश्रा। आज पूरा देश कोरोना वायरस के सामने जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा है। इतने निस्सहाय-निरुपाय हम पहले कभी नहीं थे। साल भर पहले जब इस महामारी ने हमारे देश में दस्तक दी थी, तब हमारे पास कोई तैयारी नहीं थी। इस एक वर्ष में हमने लंबी यात्रा तय की है। देश तरह-तरह के प्रयोगों के दौर से गुजरा है। हमने एक के बाद एक लॉकडाउन देखे हैं, अपने बीमार पिताजी को 1,200 किलोमीटर साइकिल चलाकर बिहार ले जाने वाली किशोरी देखी है। अपने देस-गांव पैदल लौटते लाखों मजदूरों को देखा है, फिर भी हम इतने असहाय नहीं थे। हालांकि, इस बीच हमारे पास हर तरह के किट हैं, वेंटिलेटर हैं, हमारे पास वैक्सीन भी हैं, हमने वैक्सीन अपने पड़ोसियों को भी भेंट में दी है। हम वैक्सीन डिप्लोमेसी में भी अव्वल रहे। 15 करोड़ अपने लोगों को वैक्सीन लग भी चुकी है, फिर भी हम निरुपाय हैं, क्योंकि महामारी की मार इतनी तेज है कि हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं।

शायद हम अपनी शुरुआती कामयाबी से कुछ ज्यादा ही फूल के कुप्पा हो गए थे। कोविड के संकट को भूलकर हमारे राजनेता एक-दूसरे को नीचा दिखाने में जुट गए। कोविड प्रोटोकॉल सिर्फ कुछ ही जिम्मेदार लोगों के अनुपालन की चीज रह गया। नेतागण धड़ल्ले से चुनावों में कूद गए। चुनावी रैलियों में कोविड प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ने लगीं। यहां तक कि कुंभ जैसे, विशाल जनसमुद्र को आमंत्रित करने वाले आयोजन भी बिना खास तैयारी के होने लगे। सरकारों को ही क्यों दोष दें? जनता स्वयं जैसे चादर ताने सो रही थी। वैक्सीन है, लेकिन हम उसे लगवाने में कोताही बरतने लगे थे। शादी-ब्याह, उत्सव-त्यौहार उसी पुराने अंदाज में मनाने लगे थे, इसलिए जब कोरोना के बहुरूपी वायरस ने हमें सुषुप्तावस्था में पाया, तो चौतरफा प्रहार कर दिया। एक साथ बड़ी संख्या में पीड़ित लोग अस्पतालों की तरफ कातर निगाह से देखने लगे। व्यवस्था चरमराने लगी। नियंत्रण कमजोर पड़ने लगा।
न हमारे पास पर्याप्त ऑक्सीजन है, न रेम्देसिवियेर इंजेक्शन हैं, हैं भी तो कालाबाजारी करने वालों के पास, जो दूसरे महायुद्ध के दिनों की तरह एक-एक इंजेक्शन 50-50 हजार रुपये तक में बेच रहे हैं। कोरोना टेस्ट तक नहीं हो रहे। हो भी रहे हैं, तो पांच दिन तक रिपोर्ट नहीं आ रही। निजी जांच कंपनियों ने हाथ खड़े कर दिए हैं, जो जांचें हो रही हैं, वे सोलह आना भरोसे लायक नहीं हैं। अब हर रोज तीन लाख तक नए मरीज आ रहे हैं। ढाई-तीन हजार मौतें रोज हो रही हैं। आंकड़े घटने का नाम नहीं ले रहे हैं। यहां तक आशंका व्यक्त की जा रही है कि अभी इसका चरम बाकी है। चारों तरफ अव्यवस्था का आलम है। लोग अस्पताल जाने से घबरा रहे हैं। ये कैसे समय में जी रहे हैं हम? जाहिर है, ऐसी स्थिति में सर्वोच्च अदालत मूक दर्शक बनी नहीं रह सकती। यदि वह सरकार से आगे का रोडमैप मांग रही है, तो गलत नहीं कर रही। व्यवस्था को कसने के लिए अदालतों को न केवल कड़ाई करनी चाहिए, बल्कि कोरोना के खिलाफ युद्ध को वैचारिक रूप से भी बल देना चाहिए। अभी पूरा ध्यान जमीनी स्तर पर सुविधाओं को बहाल करने पर होना चाहिए। जितनी जल्दी हम सुविधाओं को बहाल करेंगे, उतना ही अच्छा होगा। यह वक्त भरोसे को कायम रखने का है और जब अदालतें दोटूक बात करती हैं, तब लोगों का मनोबल बढ़ता है।


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