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बजट 2022 प्रतिक्रिया
अक्सर ये कहा जाता है कि दूर की सोचो, कुछ बड़ा सोचो, आज की छोड़ो, कल की सोचो। मोदी सरकार के बजट हमेशा दूर की सोच लिए होते हैं। अगले 25 साल में देश कैसे बदल जाएगा, कैसे टेक्नॉलॉजी और डिजिटल तकनीक से आम जीवन में बदलाव आ जाएगा, कैसे ज्यादा से ज्यादा टैक्स कलेक्शन का रिकॉर्ड बने और कैसे एक सुंदर सलोने राष्ट्र को सोने की चिड़िया के वास्तविक स्वरूप में लाया जा सके। आंख बंद करके सोचिए, तो बेशक सबकुछ बेहद सुंदर, आधुनिक और मैंड्रेक के मायाजाल जैसा लगता है। और सचमुच मैंड्रेक के सम्मोहन कला जैसा ही सबकुछ चलता दिख भी रहा है।
प्रयागराज में एक जमावड़े के बीच चुनावी बहस छिड़ी हुई थी। जगह थी के.पी. कॉलेज के सामने का एक कम्युनिटी सेंटर। बजट तो अपने तय समय पर निर्मला सीतारमण ने पेश कर दिया और अर्थशास्त्र के जानकार उसके मायने भी निकालने में लगे हैं, लेकिन बजट से तीन दिन पहले इस चुनावी बहस के दौरान एक साइकिल वाला रुका और जबरन कूद पड़ा – इ सरकार तो भइया खाने कमाने को तरसाय दिहिन। कड़ू तेल, चावल, आटा, दाल सभे में आग लगाए दिहिन। हम गरीबन का तो कोई सुनइ वाला नहीं।
उधर बहस जारी थी। पेट्रोल, डीजल से लेकर रसोई गैस तक, नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक। 70 साल के 'विनाश' से लेकर 7 साल के 'विकास' तक। भीड़ बढ़ रही थी और हिन्दू और मंदिर से लेकर राष्ट्रवाद की बातें जोर जोर से कहने वालों के स्वर धीमे पड़ते जा रहे थे। वो बार बार यही कह रहे थे, तुमलोगों से बात करना बेकार है, आंखों पर चश्मा चढ़ा है, देश को बचाना है तो मोदी-योगी को ही लाना होगा। बाकी किसी में दम नहीं है।
विरोधी गुट ललकार रहा था कि भइया गांव गिराम में जाकर देखो, तुम तो बहुत पैसा वाले हो, तुमको महंगाई कहां लगेगी, पेट्रोल 200 भी पहुंच जाए तो तुमको कोई फर्क थोड़े पड़ेगा। तुम तो भइया अपनी राजनीति चमकाओ, लेकिन जहां न नौकरी, न कामकाज हो, महंगाई की मार हो वहां मंदिर में जाकर क्या करें। इ सब तो भइया खाली टीवी पर दिखाए लिए होत है।
चुनावी वक्त में ऐसी बहसें आम हैं। जहां कुछ लोग जमा हो रहे हैं और अपनी बातें खुलकर बोलने की कोशिश कर रहे हैं। खासकर यूपी में तो यही हाल है। वोट कहां जाएगा पता नहीं, लेकिन महंगाई, बेरोज़गारी और खेती किसानी का संकट एक बड़ा मुद्दा तो है ही।
भाजपा का प्रचारतंत्र पूरी मुस्तैदी से गरीबों को मुफ्त राशन, किसानों के खाते में 6 हजार रूपए से लेकर सड़क, एक्सप्रेस वे, अयोध्या, काशी, मथुरा, विंध्याचल आदि गिनवा रहा है। सोशल मीडिया पर पूरा नेटवर्क सक्रिय है। लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और कहती है।
निर्मला सीतारमण के ताजा बजट में इस कनेक्टिविटी के बारे में खास ध्यान दिया गया है।
बजट के बारे में बात करते हुए ज्यादातर लोग यही कहते हैं कि काहे का बजट, कैसा बजट। यहां तो अपना ही बजट बिगड़ा हुआ है। ये करोड़ों, अरबों के आंकड़े सुन सुनकर क्या करें। ये बजट वजट तो टीवी वालों के लिए है या उनके लिए जो बैठकर आंकड़ों के परमुटेशन-कॉम्बिनेशन का खेल खेलते हैं। ये तो सरकार की एक रुटीन प्रक्रिया है।
बड़ी-बड़ी घोषणाएं कीजिए, हर मंत्रालय या योजना के लिए बजट बांटिए, लेकिन आम लोगों को क्या मिलता है ये कभी पता नहीं चलता। जीवन जैसे था, दिनोंदिन उससे भी बुरा ही हो रहा है। अब तो कभी भी किसी भी चीज का दाम बढ़ जाता है, किसी भी समय कोई भी घोषणा हो जाती है। ऐसे में भला बजट फरवरी में आए, मार्च में आए क्या फर्क पड़ता है। ये तो बस औपचारिकता है।
पहले तो ये पता होता था कि अप्रैल से कुछ चीजें बदलेंगी, कुछ सस्ता या महंगा होगा, टैक्स स्लैब में कुछ फायदा होगा, लेकिन अब काहे का अप्रैल, काहे का मई। हर दिन एक समान। देश में या तो कहीं न कहीं चुनाव होंगे, या कोई न कोई उल्टी सीधी घोषणाएं हो जाएंगी।
कोविड के इस टाइम में तो हेल्थ सेक्टर बल्ले-बल्ले हो रहा है। दो साल से सारे सेक्टर का हाल खराब है, लेकिन हेल्थ और आईटी सेक्टर में बूम बरकरार है। सारा देश डिजिटल हो रहा है। लेकिन गांव वाले अब भी डिजिटल इंडिया के सपने को साकार नहीं देख पा रहे या कनेक्टिविटी की समस्या से त्रस्त हैं।
निर्मला सीतारमण के ताजा बजट में इस कनेक्टिविटी के बारे में खास ध्यान दिया गया है। तरह-तरह के ऐप विकसित हो रहे हैं और ई-शिक्षा, ई-स्वास्थ्य, ई-बैंकिंग के साथ-साथ देश के पहले डिजिटल यूनिवर्सिटी खोलने की भी योजना है। यानी कोरोना काल के दो साल की 'उपलब्धियों' में ये सारे कदम डिजिटल इंडिया की तरफ ले जाने वाले लगते हैं। लेकिन सवाल वहीं आकर खड़ा हो जाता है कि कैसे देश की आम जनता, गरीब जनता, गांव के लोग इस पूरी प्रक्रिया से जुड़ पाएंगे और कैसे इसका फायदा लोगों तक पहुंचेगा। दरअसल अब बजट पहले जैसे नहीं होते। बहुत उलझे उलझे से होते हैं।
आप इसे अच्छा कहें, खराब कहें या साधारण कहें, लेकिन ये असमंजस बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों के दिमाग में भी होता है कि आखिर इस बजट के बारे में कुछ शब्दों में कहा क्या जाए। विपक्ष का काम आलोचना करना है, वह तो करेगा ही, लेकिन आम लोगों के लिए भी अब बजट के मायने पहले वाले नहीं रहे। वह हमेशा कन्फ्यूज्ड रहता है कि क्या कहे।
सस्ता-महंगा का वर्गीकरण भी अब पहले की तरह नहीं होता और अब सस्ता-महंगा क्या, कब और कितना होगा, ये आम जनता तो छोड़िए, व्यापारी वर्ग भी ठीक से समझ नहीं पाता।
जाहिर है बजट की ये पारंपरिक प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और अब इस औपचारिकता के बाद चुनावी वाकयुद्ध का सिलसिला एकबार फिर तेज हो जाएगा। आरोप-प्रत्यारोप, अनर्गल भाषा, धर्म, राष्ट्रवाद, आतंकवाद, दंगाई और जाने क्या क्या। खेल जारी है। आनंद लीजिए।
अमर उजाला
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