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महात्मा बुद्ध जिस समय धरती पर अवतरित हुए, उस वक्त दो तरह की साधना प्रचलित थी
मोहन सिंह
महात्मा बुद्ध जिस समय धरती पर अवतरित हुए, उस वक्त दो तरह की साधना प्रचलित थी। एक समुदाय ऐसा था- जो तमाम तरह के काया क्लेश-मसलन पंचाग्नि तापना, उल्टे मुंह धुंआ पीना, जाड़े में ठंडे जल में खड़े रहना और दूसरे अन्य उपायों के जरिए इस अनित्य-नश्वर संसार से मुक्ति की राह तलाश रहा था।
दूसरा समुदाय- मौज-मस्ती, शारीरिक सुख, 'यावत जीवेत् सुखं जीवेत्' - पंच मकारों- मांस, मदिरा, मत्स्य, मुद्रा( भुना अनाज) और मैथुन के जरिए मुक्ति की कामना करता था। इस तबके के अनुयायियों की स्पष्ट मान्यता थी कि- इस जन्म के बाद पुनर्जन्म नहीं होना है। महात्मा बुद्ध की राह इन दोनों अतिवादों से अलग 'मध्यमा प्रतिपदा' की राह थी। कबीर की तरह- अरे इन दोउन राह न पाई।
महात्मा बुद्ध बिना जांचे- परखे अपनी ही बताई राह पर चलने के आग्रही नहीं थे।आत्म दीपो भव का, ज्यादा व्यवहारिक-वैज्ञानिक और नैतिक राह था उनका गृहस्थ-संन्यास के निवृत्ति- प्रवृत्ति के अतिरेक से बचने की राह। इस मध्य मार्ग पर अपना विचार प्रकट करते हुए आचार्य हजारी द्विवेदी बताते है कि-
तृष्णा और कामना सब दुखों का मूल हैं
इस तृष्णा से निवृति तभी मिल सकती है जब तृष्णा का क्षय हो जाए। इन्द्रिय निग्रह से, ध्यान से, वैराग्य से शीलयुक्त आचरण से सब प्राणियों के प्रति मैत्री भावना से इस उद्देश्य की सिद्धि संभव है। बौद्ध धर्म के आचार्य नागसेन ने मिलिंद(मिनांडर) के साथ बातचीत में उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताया है कि-
जय-पराजय की भावना
महात्मा बुद्ध की मान्यता है कि जय-पराजय की भावना ही हमारे सुख- दुःख कारण है। जय की भावना से वैर जन्म लेता है। पराजय की भावना से दुःख उत्पन्न होता है। इसके विपरीत मैत्री की भावना के महत्व को बताते हुए उन्होंने मैत्री भाव सूत में कहा है कि-
प्रणय की जितनी क्रियाएं हैं वे सब मिलकर मैत्री की सोलहवीं कला के बराबर नहीं होती। उनका आग्रह- अहिंसा, परोपकार की भावना और प्राणियों के प्रति दया भाव जैसे भारतीय गौरव मूल्यों के प्रति आमजन को संवेदनशील बनाना रहा है।
सद्धर्म पुण्डरीक में इस लोकधर्म के बारे में कहा गया है कि- तथागत के जितने अनुयायी हैं, उन सब में वह व्यक्ति जिसने आत्मसंयम के साथ इस सूत्र को मन में धारण कर लिया है, वही धर्म की धुरी धारण करने वालों में सबसे अगुवा समझा जाएगा। एक बार जब कृतसंकल्प हुए तब चित को पीछे मत लौटना एवं श्रेष्ठ समयक् ज्ञान की ओर आगे बढ़ते रहना।
बुद्ध पूर्णिमा का विशेष महत्व
बुद्ध पूर्णिमा का महात्मा बुद्ध के जीवन खास महत्व है। पूर्णिमा के दिन ही वैशाख पूर्णिमा के दिन जन्म, ज्ञान और महापरिनिर्वाण का संयोग भी उनके जीवन में पूर्णिमा के दिन ही घटित हुआ। गया में बोधि वृक्ष के नीचे छः साल तक घोर तपस्या के बाद ज्ञान की प्राप्ति, काशी के इसीपत्तनम ( सारनाथ) में अपने शिष्यों को धर्मोपदेश के बाद शिक्षा और धर्मप्रचार का यह सिलसिला लगभग 45 साल तक (चातुर्मास को छोड़कर) अनथक-अनवरत चलता रहा।
इसके बाद कठिन मेहनत से जीर्ण-शीर्ण काया कुशीनगर में पूर्णिमा के दिन ही 80 वर्ष की आयु में महापरिनिर्वाण की यात्रा पर निकल गई। सारनाथ में प्राच्य संस्कृति परिषद के चतुर्थ अधिवेशन को संबोधित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद कहते है- बुद्धदेव और महान बौद्ध धर्म ने हमारे देशों के बीच सांस्कृतिक सेतु का निर्माण किया है।
हम दीर्घ काल तक यूरोपीयन राजनीति के सर्वग्रासी शक्ति को काटकर फिर से मिलने के लिए एकत्र हुए हैं। हम अलग राष्ट्र हैं, हमारा अलग राष्ट्रीय व्यक्तित्व हैं, किंतु हमारी जनता की नाड़ी में एक ही तरह का रक्त बह रहा है। मनुष्य का जो कुछ उत्तम है, धर्म में आचरण में, भावना में, सौंदर्यबोध में उसका पूर्ण रूप संस्कृति है।
आचार्य द्विवेदी हमें सावधान करते हुए बताते हैं-
हम अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सम्बन्धों को बहुत कम जानते हैं। जो कुछ जानते हैं वह अधूरे ज्ञान के आधार पर अधूरे विश्वास के साथ लिया गया है। इस समय और सावधानी के साथ इस काम को करना होगा। धर्म का आधार सत्य है। हमारी संस्कृति को अभिव्यक्ति का माध्यम।
एक जमाने तक दुनिया की लगभग दो तिहाई हिस्से को अपने प्रभाव में आवृत करने वाला बौद्ध धर्म- सत्य, अहिंसा-करुणा-मैत्री-अपरिग्रह-अस्तेय के आचरण के बदौलत टिका रहा। पर जब बौद्ध विहारों में बौद्ध भिक्षुओं के आचरण में शिथिलता आ गई, बौद्ध विहार बिना श्रम के महज दिखावे के ध्यान-साधना और विलासिता के केंद्र बनते गए। महान अशोक-कनिष्क और हर्ष का राजाश्रय समाप्त हो गया। बड़े-बड़े राजपरिवारों की स्त्रियों का बेरोकटोक प्रवेश बौद्ध विहारों में होने लगा।
महात्मा बुद्ध के बनाए नैतिक नियमों को ताक पर रखकर वह सब कुछ किया जाने लगा जिससे परहेज की शिक्षा महात्मा बुद्ध ने दिया। तब महात्मा बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनंद को बताया कि-
अब यह धर्म पांच सौ साल से ज्यादा नहीं टिक पाएगा। एक ऐसा धर्म जिसने इस संसार में दुःख से पीड़ित आम जनता को चार आर्य सत्यों के द्वारा मुक्ति के सर्वथा व्यवहारिक उपाय बताया। यह कि इस दुनिया में दुःख है। इस दुःख का कारण है। दुःख का निरोध भी संभव हैं। दुःख निवारण के उपाय भी हैं।
महात्मा बुद्ध ने ज्ञान-इच्छा, क्रिया के इस त्रिपुटी जगत में दुःख का मूल कारण मानवीय तृष्णाओं को बताया है। मनीषी कवि कालिदास ने अपनी रचना 'मेघदूत' में यह उदघोष किया है कि-
उत्तम मनुष्य की जितनी भी संपत्ति है उसका एकमात्र फल दुखियों का दुःख दूर करना है।
ज्ञान प्राप्ति के बाद एक बार महात्मा बुद्ध के मन में भी आया कि मौन साध लें (जैसा कि उस युग में प्रचलन में था। साधु- सन्यासी ज्ञानी -गुनी सिर्फ अपने लिए निवृत्त मार्ग चुनते थे। दूसरों के दुखों के निवारण से उनका उतना सरोकार नहीं था।) ऐसे में महात्मा बुद्ध महात्मा बुद्ध नाम को चरितार्थ नहीं करते।
इस तथ्य की पुष्टि बोधिचर्यावतार ग्रंथ में किया गया है- दूसरे प्राणियों के दुखों को छुड़ाने में जो आनंद का समुद्र उमड़ता है, वही सब कुछ है। अपने लिए नीरस मोक्ष प्राप्त करने में क्या रखा है, क्योंकि मानव जीवन दुर्लभ है। मार्कण्डेय पुराण में कहा भी गया है- मनुष्य: कुरुते ततु यन्न शक्यं सुरासुरैः (मनुष्य जो कर सकता है वह स्वर्ग के देवता भी नहीं कर सकते।)
बौद्ध धर्म की व्यवहारिक शिक्षा में भी जीव मात्र के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने अपील सर्वत्र दिखाई देती है।
Rani Sahu
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