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यूपी विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (BSP) के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद, जिसमें पार्टी ने राज्य भर से 12 प्रतिशत वोट पाए और केवल एक सीट जीती, से सत्तारूढ़ बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच दलित मतदाताओं को लुभाने की होड़ लगी है
एम हसन
यूपी विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (BSP) के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद, जिसमें पार्टी ने राज्य भर से 12 प्रतिशत वोट पाए और केवल एक सीट जीती, से सत्तारूढ़ बीजेपी और समाजवादी पार्टी के बीच दलित मतदाताओं को लुभाने की होड़ लगी है. इस प्रकार, दलित प्रतीकों के सहारे दोनों दल इस समुदाय तक पहुंचने के लिए कई तरह के आयोजनों का सहारा ले रहे हैं. इसकी वजह वो आंकड़ें हैं जो बताते हैं कि बहुजन समाज पार्टी के लिए यह समुदाय पिछले चार चुनावों से अपना समर्थन कम करता जा रहा है.
ऐसे तो दलित समुदाय लंबे समय से बीएसपी के साथ जुड़ा हुआ है, लेकिन 2014 में बीजेपी के दोबारा प्रभाव में आने से यूपी में दलितों के साथ जुड़ा गणित बदल गया है. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी का वोट करीब 22 प्रतिशत था, जो 2022 में 12.9 तक गिर गया. यह गिरावट बताती है कि कोर दलित मतदाताओं का समर्थन भी भारतीय जनता पार्टी की ओर चला गया है. वहीं बीएसपी सुप्रीमो मायावती खोई हुई जमीन को फिर से हासिल करने और 2024 के लोकसभा चुनावों में खुद को प्रासंगिक बनाने के लिए अभी से लग गई हैं.
मायावती का कोर वोटर भी बीजेपी की तरफ झुका
समाजवादी पार्टी को बीजेपी समर्थक कहकर मायावती उन मुसलमानों से कुछ समर्थन हासिल करने की उम्मीद कर सकती हैं, जो पिछले पांच वर्षों के दौरान अपने से जुड़े मुद्दों के नजरअंदाज किए जाने पर उनसे दूर हो गए थे. हालांकि, 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में 12.9 प्रतिशत यानि 1.17 करोड़ वोट पाने वाली बहुजन समाज पार्टी के राजनीतिक अंत की किसी भी तरह की भविष्यवाणी करना अभी जल्दबाजी ही होगा. पार्टी सुप्रीमो मायावती ने घोषणा की है कि वह पार्टी को फिर से पटरी पर लाने के लिए जल्द ही नए एजेंडे के साथ निकट भविष्य में कुछ 'साहसिक कदम' उठाएंगी.
मायावती का जोर दलित समुदाय, विशेष रूप से 12 प्रतिशत जाटवों पर है, जिन्होंने उनकी पार्टी का हमेशा समर्थन किया है. मायावती ने कहा, 'मुझे उन दलितों पर गर्व है, जो अपने मिशनरी आंदोलन और पार्टी नेतृत्व के साथ खड़े थे. मैं पार्टी समर्थकों से अपील करती हूं कि वे उनका मनोबल न गिराएं.' सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) ने 2022 के यूपी चुनाव विश्लेषणों में ये संकेत दिया कि मायावती को मिलने वाले जाटव समर्थन का आधार भी कम हुआ है. 2017 में 87 फीसदी जाटवों ने मायावती को वोट दिया था, जबकि 2022 के चुनावों में बीएसपी को उनका समर्थन घटकर 65 फीसदी ही रह गया.
दलित समुदाय की 66 उपजातियों में से लगभग 50 प्रतिशत जाटव हैं. वहीं इस समुदाय की अन्य प्रमुख उप-जातियों में वाल्मीकि, खटीक, पासी, कोयरी आदि हैं. 2007 के विधानसभा चुनाव के बाद इन उपजातियों ने मायावती के खिलाफ बगावत कर दी थी. इन जातियों ने महसूस किया कि सत्ता में आने के बाद, मायावती ने जाटवों पर अधिक ध्यान दिया, क्योंकि वो खुद इसी जाति से संबंधित हैं. अब बहुजन समाज पार्टी यह महसूस कर रही है कि जाटव वोट जो बीजेपी की ओर खिसक गया है, उसे पार्टी में वापस लाया जा सकता है. यदि मायावती कुछ गैर-दलितों के गठबंधन के साथ पार्टी को फिर से संगठित करने में सफल होती हैं तो ऐसा मुमकिन हो सकता है.
समाजवादी पार्टी भी दलितों पर डोरे डाल रही है
दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की योगी सरकार भी हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठी है. बीजेपी सरकार भी इस समुदाय में पैठ बनाए रखने के लिए विशेष प्रयास कर रही है. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार में जहां आठ दलित नेताओं को मंत्री पद दिया गया है, वहीं इस समुदाय के लिए कल्याणकारी योजनाओं के साथ 'दलित मित्र' एजेंडा भी शुरू हुआ है. आगरा की विधायक बेबी रानी मौर्य और कन्नौज के विधायक असीम अरुण जो कानपुर पुलिस के पूर्व आयुक्त रह चुके हैं – योगी मंत्रीमंडल के दो प्रमुख जाटव चेहरे हैं.
समाजवादी पार्टी भी दलितों के खिलाफ बन चुकी अपनी छवि को मिटाने के लिए अथक प्रयास कर रही है. समाजवादी पार्टी ने पार्टी कार्यकर्ताओं, विशेषकर यादवों को ग्रामीण क्षेत्रों में दलित नेताओं के साथ बैठकें करने के लिए कहा है. पार्टी ने इसके लिए अपनी दलित शाखा को भी मजबूत किया है. पार्टी यह बात जानती है कि दलित समर्थन के बिना 2024 में चुनावी सफलता मुश्किल होगी.
पार्टी ने दलित समाज के इंद्रजीत सरोज जैसे नेताओं को इस समुदाय को लामबंद करने के लिए लगया था जिसके चलते दलित समुदाय में एसपी का समर्थन आधार 2017 में 11 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 23 प्रतिशत हो गया है. हालांकि, समाजवादी पार्टी को यादवों और जाटवों को गांवों में एक साथ लाने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी. कांग्रेस भी दलितों तक अपनी पहुंच बढ़ाने की कोशिश कर रही है. हालांकि कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरी के चलते अभी उसके लिए यह दूर की कौड़ी है.
Rani Sahu
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