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समय बदलने के साथ अपने देश में औरत की कीमत बदलती चली गई
समय बदलने के साथ अपने देश में औरत की कीमत बदलती चली गई। हां, महत्त्व बढ़ा या नहीं, इसकी अभी हमें ख़बर नहीं हो सकी। बड़े मान से बड़े-बूढ़े हमें बताया करते थे इस देश में औरत को पूजा जाता है। इसे जगत जननी कहते हुए मन श्रद्धा से भर जाता है। कवियों की पंक्तियां श्रद्धा से सराबोर थीं, जब यह कहा जाता 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो। उसे पढ़ाई-लिखाई से वंचित करके चूल्हे-चौके तक सीमित कर दिया तो उसकी प्रशंसा में गायन करते हुए अन्नपूर्णा भी कहा गया। प्रशंसा और श्रद्धा गायन के इस कोलाहल में किसी ने ध्यान नहीं दिया कि राष्ट्र कवि ने क्यों कहा था 'अबला जीवन हाय तेरी यह कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी। इस बीच ज़माना कयामत की चाल चल गया। झोली में दूध का बिम्ब इस डिब्बा बंद वस्तुओं की मानसिकता वाले युग में असम्बद्ध लगने लगा। नारी की वेशभूषा बदल गई।
उसका आंचल कभी झोली बन सबके लिए दुआओं का झरना बन जाता था, आज वह होश सम्भालती लड़कियों के चेहरों को ढकने वाली नकाब बन गया। इस नकाब में से वाहन चलाती या पैदल पथ पर चल कर मोड़ पार करती औरत की भी केवल आंखें ही नजऱ आती हैं। महादेवी जी ने कभी कहीं इन आंखों को बरसते देख कर कह दिया होगा, 'मैं नीर भरी दुख की बदली। आज इन आंखों की ओर देखो, इसमें इस नए युग के लिए इतनी उकताहट भर दी है। इन आंखों में सवार अलगाव का बिम्ब तैरता है, जब आज भी ऐसे संवाद तेज़ाब की तरह उसके चेहरे पर फेंक दिए जाते हैं कि बेटी आज मेरे घर से तेरी डोली उठ रही है, अब उस घर से तेरी अर्थी ही उठे। ऐसे संवाद दोहराने वाले भूल गए कि आज कल डोली में बैठ कर दुल्हन केवल थीम आधारित शादियों में ही नजऱ आती है। आजकल की हॉय-बॉय शादियों में तो परामर्श मिलते हैं कि शादी कहीं किसी फिल्माए जा सकने वाले रोमांटिक स्थल पर कर डालो या वर-वधु दोनों पक्ष के अभिभावक आधे-आधे पैसे डाल कर लड़की का विदाई और दूसरे घर में स्वागत महोत्सव एक साथ मना लें। यह योजना का प्रचार तो बहुत हो गया, लेकिन आर्थिक बोझ बांटने पर मतैक्य नहीं हो पाया। इसलिए आज भी बहुदा आधुनिकता के चंवर के नीचे होने वाली ये शादियां अपना-अपना उत्सव मना अब्दुल्ला दीवाना करती देखी जाती हैं।
आधुनिकता की रौशनी परंपरा के तेल से भरे दीये में जलाने का ही यह परिणाम है कि बहुत कुछ बदलने पर भी कुछ नहीं बदला लगता है। दहेज ग़ैर-कानूनी हो गया, 'जो देना है अपनी लड़की को दीजिए के नाम से उपहार शुरू हो गए। उपहारों को तोलने वाली बड़ी पुरानी असंतुष्ट आंखें हैं। ऐसी आंखों की धनलोलुपता से परेशान हो इनकी बारातों को अपने द्वार से लौटा देने वाली लड़कियों की ख़बर तो बन जाती है, लेकिन संख्या नहीं बनती। संख्या बढ़ जाती तो भला आज भी अच्छी भली लड़कियों की अचानक मौतों के समाचार क्यों मिलते रहते। डबल गैस सिलैंडरों के इस ज़माने में रसोई घरों से स्टोव फटने से धू-धू करके जलती हुई लड़कियों के समाचार क्यों उनके मैहर के लोगों को अश्रुओं का हार पहनाते। आवाज़ें हर संसद सत्र में नारी स्वातंत्रय और सशक्तिकरण की उठती हैं, लेकिन न जाने कितनी नई लोकसभाएं गठित हुईं। हर बार नारी जि़न्दाबाद के नारे वहां लगे, लेकिन नारी आरक्षण का प्रस्ताव हर बार स्थगन के गुलगपाड़े की भेंट होता रहा। मुंह पर हां और बगल में उपेक्षा भरी न का दोहरा किरदार देश के भाग्य विधाताओं पर कुछ इस कद्र हावी हो गया कि निगम, पालिकाओं और पंचायतों में तो उनके आरक्षण को विजयश्री मिल भी गई तो उसके साथ असल सूत्रधार पार्षद पति की सौगात उन्हें मिल गई।
सुरेश सेठ
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Gulabi
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