सम्पादकीय

हिमाचल संबंधी ब्रिटिशकालीन अंग्रेज़ी साहित्य

Rani Sahu
26 Feb 2022 6:58 PM GMT
हिमाचल संबंधी ब्रिटिशकालीन अंग्रेज़ी साहित्य
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हिमाचल प्रदेश में अंग्रेज़ों के आगमन के बाद यहां की पहाड़ी रियासतों में कामकाज़ अंग्रेज़ी भाषा में भी होने लगा था

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हिमाचल रचित साहित्य -3
विमर्श के बिंदु
साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में
डा. कुंवर दिनेश सिंह, मो.-9418626090
हिमाचल प्रदेश में अंग्रेज़ों के आगमन के बाद यहां की पहाड़ी रियासतों में कामकाज़ अंग्रेज़ी भाषा में भी होने लगा था। उस समय की रियासतों के गैज़टीयर अंग्रेज़ी भाषा में निकाले गए थे जिनमें प्रमुख हैं : गैज़टीयर ऑफ दि कांगड़ा डिस्ट्रिक्ट (1897), गैज़टीयर ऑफ दि सिमला डिस्ट्रिक्ट (1904), गैज़टीयर ऑफ दि मंडी एंड सुकेत (1904), गैज़टीयर ऑफ दि सिमला हिल स्टेट्स (1910), गैज़टीयर ऑफ दि चंबा स्टेट (1910), गैज़टीयर ऑफ दि मंडी डिस्ट्रिक्ट (1920), गैज़टीयर ऑफ दि सुकेत स्टेट (1927) और गैज़टीयर ऑफ दि सिरमौर स्टेट (1934) इत्यादि। लेकिन चूंकि शिमला सियासत का केन्द्र रहा, इसलिए शिमला में अंग्रेज़ी भाषा में राजकीय कार्य के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा में साहित्यिक लेखन भी अधिक हुआ। अंग्रेज़ों के प्रभाव में मूल भारतीयों ने भी अंग्रेज़ी भाषा को कार्यालयीय प्रयोग के साथ-साथ अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना भी आरंभ कर दिया था।
वर्ष 1864 से 1869 के दौरान भारत के वाइसरॉय और पंजाब के पूर्व मुख्य आयुक्त रहे जॉन लॉरेंस ने 1864 में सिमला (वर्तमान शिमला) को भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया। हिमालय की शिवालिक शृंखला में अवस्थित शिमला उन दिनों आंग्ल सत्ता के केन्द्र कलकत्ता से दूर एक बहुत छोटा, सुंदर एवं शांत ग्राम था। सन् 1903 तक अंग्रेज़ों ने इसे नैरोगेज़ के रेलमार्ग से जोड़ दिया। 103 सुरंगों वाला यह कालका-शिमला रेलमार्ग अभी भी भारत में सबसे लंबी पर्वतीय रेलवे है। ग्रीष्म ऋतु के आते ही शिमला अंग्रेज़ी प्रशासन का केन्द्र बन जाता था। अंग्रेज़ों को शिमला के पहाड़ी नज़ारे, ख़ूबसूरत घाटियां और ताज़ी हवा बहुत पसंद आई। उनके लिए शिमला वास्तव में पहाड़ों की रानी थी, जिसने मसूरी व नैनीताल जैसे अन्य पहाड़ी क्षेत्रों और अंग्रेज़ों के ग्रीष्मकालीन पड़ावों को पीछे छोड़ दिया था। उपमहाद्वीप भारत को 'अंग्रेज़ी साम्राज्य के मुकुटमणि' के रूप में अंग्रेज़ों ने यहीं से शासित किया। शिमला में अंग्रेज़ों का पड़ाव 15 मार्च से 15 अक्तूबर के मध्य रहता था, जिस दौरान स्थानीय निवासियों के लिए भी कुछ कठोर नियम लागू थे, मॉल रोड पर घूमने के विशेष नियम, भीख मांगने पर निषेध इत्यादि। अंग्रेज़ों ने शिमला में अपने अधिकारियों के लिए घर बनवाए, ईसाई मिशनरियों के स्कूल खुलवाए, डाकघर व टेलिग्राफ कार्यालय खुलवाए, अस्पताल बनवाए, टाउन हॉल, बॉल रूम एवं रंगमंच बनवाए तथा मॉल रोड तैयार करवाया जहां अंग्रेज़ व्यापारियों की दुकानें भी थीं। मॉल रोड पर शाम के समय अंग्रेज़ अधिकारी अपने परिवारों के साथ घूमने आते थे। शिमला शहर से प्रभावित होकर अंग्रेज़ों ने इसे न केवल प्रशासनिक राजधानी बनाया, बल्कि साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र भी बनाया।
रडयार्ड किपलिंग
स्वातंत्र्य पूर्व के भारत में अंग्रेज़ी भाषा में अध्ययन एवं लेखन की दृष्टि से भी शिमला बहुत महत्त्वपूर्ण है। अंग्रेज़ों और आंग्ल-भारतीयों के अंग्रेज़ी लेखन में शिमला का उल्लेख मिलता है। उनके गद्य, कहानी, उपन्यास और काव्य इत्यादि विविध विधाओं में शिमला के मौसम के साथ-साथ यहां के तत्कालीन जनजीवन और यहां पर अंग्रेज़ों के अनुभवों का सुंदर एवं प्रभावी चित्रण मिलता है। अंग्रेज़ी साहित्य में नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले रडयार्ड किपलिंग शिमला में आकर लगभग पांच वर्ष तक रहे। उन्हें शिमला की यात्रा बहुत सुखद और आनंदप्रदायक लगती थी। सन् 1882 से 1889 के दौरान वे लाहौर से प्रकाशित होने वाले पत्र दि सिविल एंड मिलिटरी गैज़ेट के लिए रिपोर्टर (पत्रकार) के रूप में कार्य कर रहे थे। किपलिंग का जन्म सन् 1865 में बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में हुआ था जहां उनके पिता जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट में डीन के रूप में कार्यरत थे। शिमला में उनका निवास था नॉर्थबैंक, जो वर्तमान में काली बाड़ी मंदिर के पीछे फिंगास्क एस्टेट के पास में स्थित है। शिमला में रहते हुए किपलिंग ने यहां के जनजीवन को बहुत क़रीब से देखा और उनके विषय में लिखा। कविता, कहानी, उपन्यास और लेखों के माध्यम से उन्होंने भारत के अन्य नगरों के साथ-साथ शिमला का विशेष रूप से चित्रण किया है। रडयार्ड किपलिंग की कृतियों में उनकी प्रथम एवं बहुचर्चित पुस्तक 'प्लेन टेल्ज़ फरॉम दि हिल्ज़' उनकी 45 लघु कथाओं का संग्रह है जो सन् 1888 में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था।
अपनी युवावस्था में लिखीं इस संग्रह की कहानियों को किपलिंग ने नवंबर 1886 से जून 1887 के बीच 'दि सिविल एंड मिलिटरी गैज़ेट' के कई अंकों में छपवाया और फिर संग्रह रूप में प्रकाशित करवाया, जब वे केवल 23 वर्ष के थे। इस कहानी संग्रह का दूसरा संस्करण 1890 में लंदन से प्रकाशित हुआ और इसी वर्ष यह कृति 'बेस्टसेलर' यानी सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक बन गई थी। इन कहानियों में शिमला नगर के स्थानीय लोगों की जीवनशैली, यहां रह रहे अंग्रेज़ों और उनके तौर-तरीक़ों के साथ-साथ पहाड़ों के मौसम व प्राकृतिक सौंदर्य और पहाड़ी गांवों के जनजीवन के कई दृश्य मिलते हैं। शिमला के अतिरिक्त सोलन, सुबाथू, नालदेहरा, मशोबरा, कोटगढ़, नारकंडा इत्यादि स्थानों और वहां के लोगों का उल्लेख भी ख़ूब दिलचस्प ढंग से किया गया है। हालांकि इस संग्रह की सभी कहानियां शिमला पर आधारित अथवा संदर्भित नहीं हैं, लेकिन ब्रिटिशकालीन भारत के जनजीवन एवं पूर्वी और पाश्चात्य जीवनशैलियों के विविध चित्र प्रस्तुत करती हैं।
किपलिंग ने अंगे्रजों के क्रियाकलापों का चित्रण किया
किपलिंग की सन् 1899 में प्रकाशित एक काव्यकृति 'डिपार्टमेंटल डिटीज़ एंड अदर वर्सिस' शिमला में अंग्रेज़ों के विविध क्रियाकलापों तथा उनकी ऐशपरस्ती और उनके प्रेम-प्रसंगों का उल्लेख बड़े रोचक ढंग से करती है। शिमला के नटखट बंदरों का विशेष रूप से जि़क्र मिलता है। सन् 1894 में प्रकाशित, किपलिंग के बहुचर्चित दंतकथा-संग्रह 'दि जंगल बुक' की एक कहानी 'इन दि रुख' में शिमला के दक्षिण भाग के एक अरण्य का परिवेश दिखाया गया है। किपलिंग का एक उपन्यास 'किम' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। यह पहली बार दिसंबर 1900 से अक्तूबर 1901 तक एक पत्रिका 'मैक्ल्योर्ज़ मैगजि़न' में और साथ ही जनवरी से नवंबर 1901 तक एक अन्य पत्रिका 'कैसल्ज़ मैगजि़न' में प्रकाशित हुआ था, और पहली बार अक्तूबर 1901 में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था। यह उपन्यास सन् 1881 में समाप्त हुए द्वितीय अफगान युद्ध के बाद और 1919 में तीसरे युद्ध के शुरू होने से पहले, लगभग 1893 से 1898 की अवधि में लिखा गया है। यह उपन्यास तत्कालीन भारत के जनजीवन, संस्कृति और विभिन्न धर्मों और अंधविश्वासों का विशद चित्रण करता है।
उपन्यास का नायक है 'किम', जो एक आयरिश सैनिक का अनाथ पुत्र है और बहुत ग़रीब है तथा उसका सहयोग करने वाली एक महिला पात्र है 'सहिबा', जो हिमाचल में कुल्लू से संबंध रखने वाली एक बूढ़ी पहाड़ी राजपूत समुदाय की कुलीन महिला है और सहारनपुर के पास मैदानी इलाकों में बस गई है। साथ ही एक अन्य पात्र है शामलेग की महिला जो किम और लामा को रूसी जासूसों से बचने और मैदानी इलाकों में लौटने में मदद करती है। इनके अलावा एक अन्य पात्र है लुर्गन साहिब जो शिमला का एक रत्न-व्यापारी और जासूस है। कहानी में वर्णित स्थानों में एक शिमला में स्थित लुर्गन साहब की प्राचीन वस्तुओं की एक छोटी दुकान भी है, जो शिमला के बाज़ार में ए. एम. जेकब की एक वास्तविक दुकान पर आधारित थी। उपन्यास में एक उक्ति है ः 'हम आपको सनावर में एक भद्रपुरुष बना देंगे। इसके लिए बेशक़ हमें आपको प्रोटेस्टेंट बनाने की क़ीमत भी क्यों न चुकानी पड़े!' इस उद्धरण में सोलन में कसौली के निकट स्थित सुप्रतिष्ठित लॉरेंस स्कूल, सनावर का संदर्भ है। किपलिंग को साम्राज्यवादी दृष्टिकोण का लेखक माना जाता रहा है, किंतु उनका कथा-साहित्य हिमाचल और विशेषकर शिमला का चित्रण इस नगर के इतिहास एवं तात्कालिक जनजीवन को अत्यंत रुचिकर व जीवंत रूप में प्रस्तुत करता है।
अन्य लेखक
नॉर्थबैंक में रडयार्ड किपलिंग के पड़ोसी थे एडवर्ड जे. बॅक जिन्होंने वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न के आग्रह पर शिमला पर केन्द्रित एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था : 'सिमला : पास्ट एंड प्रेज़ेंट'। इस पुस्तक में ब्रिटिशकालीन शिमला में अंग्रेज़ों के आवासों, सरकारी भवनों, गिरजाघरों व मंदिरों की पृष्ठभूमि एवं वास्तुकला तथा अन्य महत्त्वपूर्ण स्थलों के विस्तृत विवरण के साथ-साथ तत्कालीन शिमला के लोगों की जीवनचर्या के चित्र भी मिलते हैं। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् 1925 में बम्बई से प्रकाशित हुआ था। इसी प्रकार एक अमरीकी पर्यटक ने लेखकीय नाम दोज़ से शिमला के बाज़ार और अन्य स्थलों सहित लोगों की दिनचर्या का संक्षिप्त मगर बेहद रोचक वृत्तांत देती एक लघु पुस्तक लिखी 'सिमला इन रैगटाइम', जो सन् 1913 में प्रकाशित हुई थी और नवीनतम संस्करण में आज भी मार्केट में उपलब्ध है।
सर फ़रेडरिक ट्रीव्ज़ ने सन् 1905 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'दि अदर साइड ऑफ दि लैंटर्न' में शिमला को 'सिंगुलर्ली बियूटिफुल टाउन' यानी 'एकमात्र सुंदर नगर' कहा है। ब्रिटिश सरकार में प्रशासनिक अधिकारी रहे डेनिस किन्साइड की सन् 1938 में प्रकाशित पुस्तक 'ब्रिटिश सोशल लाइफ इन इंडिया : 1608 टू 1938' ईस्ट इंडिया कंपनी के दिनों से लेकर औपनिवेशिक भारत के विभिन्न नगरों में अंग्रेज़ों की जीवन-शैली का लेखा-जोखा है, जिसमें एक अध्याय शिमला के लिए समर्पित है। ए. ई. जोन्स की 'कॉमन बर्ड्ज़ ऑफ सिमला' (1935) एक अनूठी पुस्तक है जो शिमला में सबसे अधिक देखे जाने वाले पक्षियों का सचित्र विवरण प्रदान करती है। सैमुअल इवान्स स्टोक्स एक अमेरिकी थे जो भारत आने के कुछ सालों बाद हिमाचल में ही बस गए थे और सत्यानंद स्टोक्स के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने मिशनरी के रूप में ज़रूरतमंद लोगों की सेवा की, ईसाई कोढि़यों की सेवा में समय बिताया तथा प्लेग से मर रहे लोगों की देखभाल की और उनकी यथासंभव आर्थिक सहायता भी की। उन्होंने ब्रदर्हूड की स्थापना की। सन् 1910 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'अर्जुन ः दि स्टोरी ऑफ ऐन इंडियन बॉय' वास्तविकता पर आधारित है। इस कहानी में जिस युवक के जीवन का वर्णन है उसका नाम बदला गया है, लेकिन उसके जीवन का सत्य कहा गया है। हालांकि यह पुस्तक मुख्य रूप से युवाओं के लिए लिखी गई थी, लेकिन वयस्कों के लिए भी यह समान रूप से रुचिकर है।
कहानी के साथ-साथ शिमला के उत्तर-पश्चिम में पहाड़ी लोगों के रीति-रिवाजों से संबंधित ऐसी जानकारी पहले कभी नहीं छपी थी। शिमला के इतिहास एवं पर्यटन संबंधी सामग्री से युक्त कुछ अन्य पुस्तकें हैं जिनमें उल्लेखनीय हैं : मेजर आर्चर की 'टूअर्स इन अपर इंडिया' (1833), कैप्टन जॉर्ज पॉवेल टॉमस की 'व्यूज़ ऑफ सिमला' (1846), विलसन एन्ड्रियू की 'दि अबोड ऑफ स्नो' (1875), लिड्डेल की 'सिमला डायरेक्टरी' (1901), जे. एफ. विल्किन्सन की 'दि पैरोकिअल हिस्टरी ऑफ सिमला' (1903), बेयली टी. ग्राहम की 'डायलेक्ट्स ऑफ दि सिमला हिल्ज़' (1910) तथा बेरेस्फोर्ड हैरप की 'टैकर्स न्यू गाइड तो सिमला' (1925)। पुस्तकों के अतिरिक्त बीसवीं सदी के प्रारंभ में कुछ ब्रिटिशकालीन पत्र-पत्रिकाएं भी अंग्रेज़ी लेखन को प्रोत्साहन देने में कारगर सिद्ध हुई हैं जिनमें प्रमुख हैं : 'दि सिमला टाइम्ज़', 'लिड्डेल्ज़ सिमला वीकली' तथा बिशप कॉटन स्कूल की पत्रिका 'दि कोटोनियन'।
-डा. कुंवर दिनेश सिंह
-(शेष भाग अगले अंक में)
उदास धूप और अंजुरी में स्वप्नों की चांदनी
अपने नए कविता संग्रह 'शिखर की ओर' के साथ डा. नलिनी विभा 'नाज़ली' कई अर्थ, कई मुद्राएं, कई समुद्र, कई झरनों के बावजूद, भंवर से गुजरती कविताओं को सूखी रेत तक ले आती हैं, जहां सांसारिक मृगतृष्णाओं के बीच खोजने और पाने के अनेक संगम हैं। जैसे कोई कविता हवन कुंड से निकल कर आई हो या गंगा के तट पर सुबह-सुबह मिल गई हो, भीगी, आत्मविभोर और अपनी ही आस्था से ओत-प्रोत। जीवन लिखने की परिपाटी को और आगे बढ़ातीं डा. नाज़ली कुछ यूं बयां करती हैं, 'बह गया जो- खारा जल/बहा ले गया बहुत कुछ! किंतु जो बहा- भीतर ही भीतर, कर गया हमेशा के लिए- कंठ अवरुद्ध!!' 'लीलता रहा अस्तित्व' जैसी कविता के भीतर सारे आकाश झुक जाते हैं और फिर कहीं मां की कोख चीखती हुई जो कहती है, उससे सुनने के लिए ब्रह्मांड को भी रुकना होगा।
'अपने ही अस्तित्व के कारावास में', एहसास को जीती ऐसी कविता है, जो हर किसी के जीवन पर टंगी हुई महसूस होती है और नारी व्यथा के टापू को छूती 'बहती रहेगी' कहती है, 'सोचती हूं, बेटी ने बनाई है- अपनी अलग पहचान! किंतु उसके व्यक्तित्व में समाई हूं गहरे- मैं भी/जैसे मुझ में, मेरी मां का अस्तित्व/और उसमें नानी मां का- अंश-अंश, कतरा कतरा, बहती जा रही है, धाराप्रवाह- नदी/बहती ही रहेगी- बहती ही रहेगी!!' जीवन की उलझनों से रूबरू कविताओं की मीलों लंबी यात्रा में विडंबनाएं जब लौटती हैं 'मन' की घंटियां बजती हैं कुछ इस तरह, 'मद्धिम पड़ गई शक्ति- इन्द्रियों की, मृत्यु खड़ी द्वार पर मेरे-मन! तू अभी भी, कितना असावधान है!! व्यस्त है- बिना व्यस्तताओं के!!!' मानवीय दर्पण को अगर निगाह मिल जाए और गूंगे समाज को आवाज तो शायद कविता कभी भी देख, छू या मर्म का भेद न जान पाती। इसलिए जब कविता आंखें खोलकर चलती है तो नवचेतना का सृजन, 'आकाश बेल – सा वह' (16), 'रेशमी धागे' या 'छोटे-छोटे कंकाल' सरीखा हो जाता है। नाज़ली की कविताएं खास कसक के पर्दे पर उतरीं समाज की दूत की तरह हैं। नारी यहां 'बूंद-बूंद' है, 'बोनसाई' है या 'प्रतिबिंब' है। वह 'दीमक' की तिजोरी में या 'कांच के कमरे में' अपनी 'विवशता' ओढ़े हुए, 'कांच के कमरे में कैद, नेत्रहीन- सरीखी/भागती हूं- कभी इस ओर, कभी दूसरे छोर! टकराती/लौटती/बढ़ती/टकराती/लहूलुहान होती- कांच के कमरे में!!' अपनी 182 कविताओं के महाकुंभ में कवयित्री के कुछ सपने, कुछ हकीकत, कुछ अपने और कुछ चांदनी में लिपटे लम्हे, तो कुछ ज़हर से भरे प्याले हैं। वह अपने दर्शनशास्त्र, 'स्वप्नों की चांदनी, अंजुरी भर भर- सहेजने से मैंने, क्या पाया? पाया उसने, जिसने विचारों की – दुनिया का किया भ्रमण, विवेक को पाया' को समय के प्रश्नों से मांजती हैं, 'बहता रहता है/वक्त का दरिया/बदलते रहते हैं/कैलेंडर दर कैलेंडर- ऐ वक्त! क्या तुम भी सिसकते हो? चीखते हो? जब मौत बेवक्त किसी के- सिरहाने आ बैठती है?' डा. नलिनी विभा नाज़ली ने अपने भाषाई प्रयोगों से 'धराशायी सपने', 'शून्य', अहम की तुष्टि, मन जंगल और 'जिस्म के रिश्ते' जैसी कविताओं की पांत बदल दी है।
'मुक्ति पथ' का प्रश्न और 'झंझावात' के बीच जीवन का घर्षण, 'युग पटल पर' कविता को सहलाती कवयित्री, अपनी संस्कृति व परिवेश के बीच को अपने 'बांध' तोड़ती हुई पूछती है, 'जज्बात का बहाव, रोक दिया है मैंने! बांध बना कर, कैद कर लिया मैंने- जीवन जल!' डा. नलिनी विभा नाज़ली जिस शिद्दत से उर्दू शायरी की बारीकियों में पारंगत हैं, उसी तरह हिंदी कविता की महक लिए हाजिरी लगा रही हैं, 'पहरों कोहरे के आवरण में- लिपटी धरा! सर्द बहुत सर्द है- भारी सी श्वास है!! निकली तो है अब, लेकिन- धूप भी उदास है!!!' -निर्मल असो
पुस्तक समीक्षा : पूर्ण राज्यत्व दिवस को शोभित करता अंक
साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक पत्रिका 'बाणेश्वरी' का पूर्ण राज्यत्व दिवस विशेषांक (अंक 301-302) पाठकों के लिए प्रकाशित हुआ है। डा. गौतम शर्मा 'व्यथित' इसके मुख्य संपादक हैं, जबकि दुर्गेश नंदन संपादक हैं। पत्रिका के संपादकीय में डा. गौतम शर्मा व्यथित वीर राम सिंह पठानिया की अंग्रेजों के खिलाफ दिखाई गई वीरता की याद दिलाते हैं। डा. व्यथित याद दिलाते हैं कि कड़े संघर्ष से पाई गई आजादी के प्रति सभी भारतवासियों की कटिबद्धता होनी चाहिए। इतिहास के झरोखे के तहत स्व. संसार चंद प्रभाकर का आलेख 'धामी गोली कांड' शीर्षक से छपा है जो इस घटना के पीछे के इतिहास को अनावृत्त करता है। पहाड़ी भाषा पर कार्तिक शर्मा का आलेख पाठकों को आकर्षित करता है।
आशुतोष आशु 'निःशब्द' के आलेख में संतोष शैलजा की कहानियों में 'स्त्री विमर्श' पर चिंतन किया गया है। प्रेरक प्रसंग के तहत पवन चौहान सीमा और मुस्कान नाम की छात्राओं के साहस की मिसाल पेश करते हैं। एक अन्य आलेख में श्री राम शर्मा आचार्य कहते हैं कि सत्साहित्य के प्रचार-प्रसार से ही समाज बदलेगा। पत्रिका के एक कोने में सागर पालमपुरी की ़गज़ल भी पढ़ने योग्य है। हिमाचली जनजीवन पर आधारित डा. गौतम शर्मा व्यथित के उपन्यास 'रेस्मा' के अंश भी छापे गए हैं। एक अन्य आलेख में कलाकार कमल हमीरपुरी का व्यक्तित्व सामने आया है। प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का आलेख राज्य की विकास गाथा सुनाता है। डा. मीनाक्षी दत्ता की किताब 'मध्यकालीन कृष्ण काव्य के परिप्रेक्ष्य में हिमाचली लोकगीतों का अनुशीलन' की पुस्तक समीक्षा डा. ओम प्रकाश सारस्वत ने की है। पत्रिका में और भी बहुत कुछ है, जो पठनीय है। आशा है पाठकों को यह अंक पसंद आएगा। इस अंक का मूल्य मात्र 20 रुपए है। -
फीचर डेस्क
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