सम्पादकीय

संसद का संक्षिप्त बजट

Subhi
31 Jan 2022 3:31 AM GMT
संसद का संक्षिप्त बजट
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आज 31 जनवरी से शुरू हो रहा संसद का बजट सत्र कोरोना काल शुरू होने पर सदन का छठा सत्र होगा जिसकी समयावधि भी बहुत छोटी रहेगी। अक्सर बजट सत्र के दो चरण होते हैं

आज 31 जनवरी से शुरू हो रहा संसद का बजट सत्र कोरोना काल शुरू होने पर सदन का छठा सत्र होगा जिसकी समयावधि भी बहुत छोटी रहेगी। अक्सर बजट सत्र के दो चरण होते हैं जो इसमें भी रहेंगे मगर वे बहुत छोटे होंगे और दोनों चरणों को मिल कर पूरा सत्र कुल 29 दिन का होगा जिसमें सबसे बड़ा विधायी कार्य आगामी वित्त वर्ष के बजट को पारित करना होगा। समय की कमी को देखते हुए इस बार शून्यकाल भी आधे समय का हो सकता है। पहले चरण में कुल 11 बैठकें 31 जनवरी से 10 फरवरी तक होंगी और दूसरे चरण में 14 मार्च से 8 अप्रैल तक 19 बैठकें होंगी। भारतीय संसद की परंपरा के अनुसार बजट सत्र के प्रथम दिन राष्ट्रपति संसद के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधित करेंगे। उनके अभिभाषण के बाद इस पर सरकार की ओर से रखे जाने वाले धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा होगी और साथ ही एक फरवरी को वित्त मन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमन लोकसभा में वार्षिक बजट प्रस्तुत करेंगी।इस प्रकार संसद की कार्यवाही दो चरणों में आगे चलेगी मगर इसी बीच 10 फरवरी से लेकर 10 मार्च तक देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया भी चलेगी। जाहिर है कि पांच राज्यों के चुनावों का असर संसद के सत्र के पहले चरण में देखने को मिल सकता है जबकि दूसरा चरण 14 मार्च से शुरू होगा और तब तक 10 मार्च को ही विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके होंगे, अतः इस चरण में राजनीति का खुमार उड़ चुका होगा। यदि हम पिछले कुछ वर्षों का संसद की कार्यवाही का रिकार्ड देखें तो सांसदों का अधिक समय आपसी दलगत खींचतान में जाया हुआ है और दोनों ही सदनों में शोर-शराबा भी जमकर होता रहा है।पिछले शीतकालीन सत्र में तो हालत यहां तक पहुंच गई थी कि महत्वपूर्ण विधेयक तक भारी शोर-शराबे के बीच ध्वनिमत से पारित कराये गये। सबसे पहले यह समझा जाना चाहिए कि लोकतन्त्र में संसद देश की उस समस्त जनता का प्रतिनिधित्व करती है जो इसके दोनों सदनों में अपने प्रतिनि​िध चुन कर भेजती है। अतः यह देश में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक माहौल का अक्स होती है। जीवन्त लोकतन्त्र में किसी भी देश की संसद तब शान्त नहीं रहती है जब उसकी सड़कों पर भारी बैचैनी रहती हो। अतः जब संसद में सत्ता से बाहर उसके विरोध में बैठी पार्टियों के सांसद शोर-शराबा करते हैं और जनता को बेचैन करने वाले मुद्दे उठाते हैं सत्ताधारी दल को उनका सन्तोषजनक जवाब देना होता है परन्तु संसद के दोनों सदनों में जनता के मुद्दे उठाने के लिए कुछ नियम बने होते हैं जिनका पालन प्रत्येक पक्ष के सांसदों को करना होता है जिनका पालन कराने का अधिकार सदनों के पीठासीन अध्यक्षों का होता है। हम देखते आ रहे हैं कि इसी क्रम में गफलत का एेसा माहौल बन जाता है कि सदनों में व्यवस्था का अभाव व्याप्त हो जाता है जिसका परिणाम शोर-शराबा या नारेबाजी होता है। अतः दोनों पक्षों की जिम्मेदारी बनती है कि उनके सदस्य सदन की गरिमा के अनुसार आचरण करें और जनता से जुड़े मुद्दों पर बहस-मुबाहिसा करके तर्कपूर्ण ढंग से किसी मान्य हल को निकालें। यह भी सच है कि संसदीय लोकतन्त्र में संसद को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सत्तारूढ़ दल की ही होती है। इसकी असली वजह यह है कि संसद में जितने भी जिस किसी दल के सदस्य होते हैं वे आम जनता द्वारा ही चुने हुए होते हैं।संपादकीय :भारत-इजरायल संबंधयहां गर्व की बात... वहां शर्म की बातमुख्यमंत्री के चेहरे का विवादकोरोना का नया वेरिएंट और हमलुटती आबरू, तमाशबीन लोगयू.पी. का पश्चिमी उत्तर प्रदेशसंसद के नियमों के अनुसार प्रत्येक दल के सांसद की शक्ति और अधिकार बराबर ही होते हैं। प्रत्येक की जिम्मेदारी मतदाताओं के प्रति एक समान ही होती है मगर जिस पार्टी के बहुमत की वजह से सरकार गठित होती है उसके सदस्यों पर शासन चलाने का भार आ जाता है और विपक्ष में बैठे सांसदों की जिम्मेदारी जनता के हित में सरकारी फैसलों की तसदीक करने की बन जाती है जिसकी वजह से सत्ता और विपक्ष के सांसदों में नोक- झोंक होती रही है। मगर यह कार्य शास्त्रीय तरीके से तर्कों के माध्यम से होना चाहिए जिसे बहस या चर्चा कहा जाता है। लोकतन्त्र में संसद सर्वोच्च होती है अतः इसका काम सकारात्मक चर्चा करके लोकहितकारी फैसले करना होता है जिसकी वजह से सरकार के किसी भी विधेयक पर चर्चा करा कर ही उसे दोष रहित बनाने की कोशिश की जाती है और उसमें विपक्षी सदस्यों का सहयोग व योगदान लिया जाता है जिससे बहुमत की चुनी हुई सरकार देश की समस्त जनता की सरकार कहलाती है। संसदीय लोकतन्त्र का यही मूलभूत सिद्धान्त 'जनता की सरकार' कहलाता है परन्तु पिछले तीन दशकों से संसद की गरिमा को वह सम्मान नहीं मिल पा रहा है जिसकी वह हकदार मानी जाती है। इस तरफ सभी दलों को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है क्योंकि भारत की संसद ही समूचे लोकतन्त्र की संरक्षक है। इसके पटल पर खड़ा होकर जब कोई सदस्य बोलता है तो वह हर प्रकार के भय या लालच से मुक्त होकर अपने विचार बेबाक तरीके से व्यक्त करता है मगर उसका लक्ष्य केवल जन कल्याण होना चाहिए। इसी वजह से हमारे पुरखे सांसदों को विशेषाधिकार देकर गये हैं।

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