सम्पादकीय

रोटी, कपड़ा, मकान और मास्क

Rani Sahu
11 Jan 2022 7:07 PM GMT
रोटी, कपड़ा, मकान और मास्क
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पिछली रात ही मुंबई होकर आया हूं

पिछली रात ही मुंबई होकर आया हूं। सपने में। रेल से नहीं, विमान से। और वह भी चार्टर्ड विमान से। असल में जबसे एक बार फिर कोरोना सिर उठाने लगा है, मैं तबसे फिर से अपने मनचाहे स्टेशनों पर सपनों में ही जी भर घूमकर मजे कर आता हूं। सपने में घूमने के बहुत से लाभ हैं। आजमा कर देख लीजिए। जब अपने पाठकों से मैंने आज तक कुछ नहीं छिपाया तो अब उनसे ये भी क्या क्यों छिपाऊं कि कुछ रात पूर्व सपने में ही मुझे एक नामचीन हिंदी कामेडी फिल्मों के प्रोड्यूसर ने मेरे व्यंग्य पर फिल्म बनाने का निमंत्रण भेज मुंबई सादर आने को कहा था। वैसे मुझे कोई औपचारिकता के लिए भी बुलाए तो भी मैं उनके यहां अपनी तरफ से सादर पहुंच जाता हूं। व्यंग्य राइटर ही सही, हूं तो कायदे से राइटर ही। सो, हवाई यात्रा का टिकट भी उन्होंने की बुक करवा दिया। मैं तो अपने पैसों से टिकट लेकर गधे पर भी नहीं बैठता। कोई दूसरा गधे वाले को मुझे सवारी कराने के पैसे दे दे तो दे दे। पता नहीं सपने में उन्होंने मेरा व्यंग्य कहां से पढ़ लिया होगा? प्रोड्यूसर को निपटा कर घूमता घूमता अभी मैं आरके स्टूडियो के दर्शन करने जा ही रहा था कि मुझे आगे से मनोज कुमार आते दिखे।

अरे वही, रोटी कपड़ा और मकान वाले। उफ्फ, क्या गजब की फिल्म बना गए थे! तबसे जहां हम जिंदगी में रोटी कपड़ा और मकान में अटके पड़े हैं, वहीं अटके पड़े हैं। सरकार आज भी जरूरतमंदों को मकान बना कर दे रही है। और वे अपने मकान जरूरतमंदों को बेच रहे हैं। सरकार आज भी राशन की दुकान से रोटीमंदों को रोटी दे रही है। और वे अपने हिस्से की रोटी किसी और को बेचे दे रहे हैं। अपने आप फिर भूखे के भूखे। रही बात कपड़े की तो कपड़े न पहनने वालों की अब समाज में कोई कमी नहीं। सामने से मनोज कुमार आते दिखे तो सोचा, रोटी कपड़ा और मकान टू बनाने आए होंगे। और इधर हम अभी भी रोटी कपड़ा और मकान वन में ही लेटे पड़े हैं। हां! बीच बीच में विज्ञापन वाले फॉग वाले फ़ॉग को मजबूर जरूर कर देते हैं। तो हम भी फुस्स फुस्स कर लेते हैं बदन पर। इसका एक लाभ है।
ऐसा करने के बाद पांच सात दिन बिन नहाए मजे से निकल जाते हैं। बदन बदबू नहीं मारता। ऊपर से पालिका का पानी बचा सो अलग। राम सलाम के बाद मैंने मनोज कुमार से पूछा, 'बंधु! आप कब आए?' तो वे उसी तरह गंभीर रह मुस्कुराते बोले, 'मैं तो रोटी कपड़ा और मकान बनाने के बाद से यहीं हूं। जनता रोटी कपड़ा और मकान से ऊपर उठे तो मैं अपना रास्ता लूं।' 'तो क्या अब आप रोटी कपड़ा और मकान टू बनाने वाले हैं? अब तो फिल्मों को गति की कहानियां तो छोडि़ए, शीर्षक तक नहीं मिल रहे।' 'ये आपको कैसे किससे पता चला कि मैं रोटी कपड़ा और मकान टू बनाने जा रहा हूं? मीडिया से?' 'व्यंग्यकार हूं। प्रोड्यूसर की नब्ज पकड़े बिना ही उसके सारे सामाजिक इरादे समझ जाता हूं।' मैंने मंद मंद मुस्कुराते कहा तो वे बोले, 'नहीं दोस्त! रोटी कपड़ा और मकान टू नहीं, रोटी कपड़ा मकान और मास्क बनाने जा रहा हूं। लगता है, आज रोटी, कपड़ा और मकान से पहले मास्क जरूरी है। अगर मास्क नहीं तो रोटी, कपड़ा और मकान सब धरे के धरे समझो।' उन्होंने कहा और आगे हो लिए। मैं उनसे और भी बहुत सी बातें करना चाहता था, पर अचानक अखबार वाले ने पूरी जोर से अखबार फेंका तो खिड़की के शीशे में उसके बजते ही मैं चौंक कर जाग उठा। शुक्र है, खिड़की का शीशा सलामत रहा।
अशोक गौतम

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