सम्पादकीय

सीमा विवाद: चीन की नीयत सही हो, तब तो कोई हल निकले

Neha Dani
13 Oct 2021 1:48 AM GMT
सीमा विवाद: चीन की नीयत सही हो, तब तो कोई हल निकले
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माकूल मौके का फायदा उठाने लिए लंबे इंतजार के अलावा भारत के सामने और कोई रास्ता नहीं है।

पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के कोर कमांडरों के बीच तेरहवें राउंड की बातचीत बिना किसी घोषणा के खत्म हो गई। बातचीत का एजेंडा सीमित था: चीन की भारी घुसपैठ के कारण इस क्षेत्र में 17 महीने से चल रहे खतरनाक तनाव की जगहों पर विस्फोटक स्थिति को दूर करना। इसकी बुनियादी शर्त यह है कि अप्रैल, 2020 में चीन ने भारत के जिस भू-भाग पर कब्जा किया, उसे वह खाली करे या दोनों पक्ष सहमति के अन्य किसी बिंदु पर पहुंच जाएं। जैसे बारहवें राउंड में गोगरा से दोनों देशों के सैनिकों को पीछे हटाने पर कोर कमांडर राजी हो गए थे।

इससे पहले पैंगांग सो इलाके से सैनिक हटाने पर सहमति हो गई थी। लेकिन तेरहवां राउंड अप्रत्याशित कड़वाहट के बीच खत्म हुआ। चीन के सैनिक प्रतिनिधि ने भारत से कहा कि वह स्थिति को समझने में गलती करने के बजाय, भारत-चीन सीमा पर बड़ी मुश्किल से पैदा हो पाई स्थिति से खुश रहे। अर्थात, अप्रैल 2020 में चीन ने जिन इलाकों पर कब्जा किया, उसे भूल जाए। यह वस्तुतः अल्टीमेटम था। तेरहवें राउंड की वार्ता से पहले चीन की तरफ से कई अशुभ संकेत मिले। अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर के यांगत्सी क्षेत्र में हथियारबंद चीनी सैनिक घुस आए। कुछ रिपोर्टों में सरकारी सूत्रों के हवाले से बताया गया कि भारतीय सैनिकों ने त्वरित कार्रवाई करते हुए कई चीनियों को पकड़ लिया।
भारतीय सेना की हिरासत में कई घंटे रहने के बाद उन्हें रिहा किया गया। उससे पहले लगभग स्थायी तौर पर शांत रहने वाले मध्य सेक्टर, उत्तराखंड की सीमा से लगे बाराहोती में चीनी सैनिक घोड़ों पर आए थे। 1962 के युद्ध में चीन ने तवांग पर कब्जा कर लिया था और बाराहोती में भी काफी आगे तक बढ़ आया था। उसने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा के बाद ये दोनों इलाके खाली भी कर दिए थे। तो फिर नवीनतम घुसपैठ का मकसद क्या था? पैटर्न पुराना है। पकड़े गए तो लौट जाएंगे; नहीं पकड़े गए तो जम जाएंगे, दावा करने लगेंगे कि यह जमीन चीन की है और फिर लंबी वार्ता का सिलसिला शुरू होगा।
कब्जाए गए कुछ इलाकों पर बात ही नहीं होगी, जैसे अक्साई चिन। बीजिंग में हुई एक घटना से स्पष्ट संकेत मिला कि चीन बातचीत के केंद्र को इधर-उधर करना चाहता है। सितंबर के दूसरे सप्ताह में भारत-चीन ट्रैक टू डायलॉग (कूटनीतिक औपचारिकता से दूर होने वाली वार्ताएं) में भारत के राजदूत विक्रम मिसरी ने चीन से अनुरोध किया कि पूर्वी लद्दाख में चल रहे तनाव को दूर करने के लिए हो रही वार्ताओं को व्यापक सीमा विवाद से न जोड़ा जाए, क्योंकि दोनों मुद्दे अलग-अलग हैं। मिसरी के बयान से ठीक एक दिन पहले भारत सरकार के प्रवक्ता ने दो टूक कहा था कि चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भड़काऊ हरकतों के साथ ही वास्तविक नियंत्रण रेखा पर एकतरफा बदलाव लाने की कोशिश कर रहा है।
मिसरी के वक्तव्य ने चीन की बदनीयती को रेखांकित किया। वह किसी भी मुद्दे का हल चाहता ही नहीं, क्योंकि स्थायी नीति भारत के हुक लगाए रखने की है। पिछली शताब्दी के छठे दशक में लद्दाख के विशाल भू-भाग, अक्साई चिन पर उसने कब्जा कर लिया, हालांकि इतिहास में कभी-भी वह भू-भाग चीन का नहीं था। 1962 में हमला कर भारत को अपमानित किया। 1962 से जुड़े मुद्दों पर कभी गंभीरता से बात नहीं की। वह कहता रहा- पहले व्यापार और अन्य क्षेत्रों में संबंध बना लें और सीमा विवाद भविष्य पर छोड़ दें। वह भविष्य मृगमरीचिका सिद्ध हो रहा है। वह भारत को लोहे के मकड़जाल में फंसाए रखना चाहता है। विवाद जितना लंबा खिंचेगा, उसके दावे और कब्जे वैधानिक रूप लेते रहेंगे। ताजा मिसाल है देपसांग। उसने 2013 में इस सामरिक इलाके पर कब्जा किया था। तेरहवें रांउड में इस पर बात होनी थी। नहीं हुई।
उभयपक्षीय वार्ताएं राजनीतिक लक्ष्यों और भू-राजनीतिक स्थितियों से अनिवार्यतः प्रभावित होती हैं। चीन अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए बहुत निश्चिंत और आश्वस्त है। उसके लिए इतनी अनुकूल परिस्थितियां पहले कभी नहीं रहीं, कोरिया युद्ध के भी समय। रूस वस्तुतः उसका पिछलग्गू है। वियतनाम की भांति अफगानिस्तान से भाग खड़े होने वाले अमेरिका की साख खासी गिर चुकी है। नए युद्ध लड़ने की इच्छाशक्ति फिलहाल नहीं है। अगर तलवार की धार भोथरी हो चुकी हो, कलाइयों में तलवार उठाने की ताकत न हो या लड़ने का हौसला पस्त हो चुका हो, तो विरोधी का दुस्साहस बढ़ेगा ही। नए ग्रेट गेम में अफगानिस्तान का मैदान चीन के लिए खुल चुका है। तालिबान पहले से ही उसका दोस्त बना हुआ है। अफगानिस्तान के वाखन गलियारे से नया सड़क मार्ग और गर्म पानी के बंदरगाह तक चीन का पहुंचना अब संभावनाओं के दायरे में है।
चीन थोड़ा-बहुत भी भारत के माकूल जाने वाले समझौते पर क्यों सहमत होगा? 1960 में चाउ एनलाई ने जवाहर लाल नेहरू के सामने जो प्रस्ताव रखा था, अब वह भी मुमकिन नहीं है। 1959 में तिब्बत में बौद्ध विद्रोह चोटी पर था। तिब्बत पर ध्यान केंद्रित करने के लिए चीन ने भारत के साथ ही बर्मा (तब उसका नाम म्यांमार नहीं था) और नेपाल के साथ भी सीमा विवाद के हल का प्रस्ताव रखा था। शिनजियांग में तुर्क मुसलमानों की बगावत को कुचलना था, तो कजाकिस्तान, किर्गिजिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ सीमा विवाद के हल का रास्ता खुल गया।
अमेरिका के इतिहासकार और चीन विशेषज्ञ एम टेलर फ्रावेल अपनी किताब स्ट्रॉन्ग बॉर्डर्स सिक्योर नेशन में लिखते हैं कि सबसे बड़ी स्थल सेना वाले चीन की सीमाओं पर सैन्य संतुलन उसके पक्ष में है। ऐसे में वह किसी के साथ रियायत क्यों करने वाला? तत्कालीन सोवियत संघ सहित जिन-जिन देशों से उसने सीमा समझौता किया,वह उसके महाशक्ति बनने के पहले का अध्याय है। क्वाड न होता, अमेरिका से घनिष्ठ संबंध न होते और भारत रक्षा तैयारी न कर रहा होता, तब भी भारत-चीन सीमा विवाद हल नहीं होने वाला था। माकूल मौके का फायदा उठाने लिए लंबे इंतजार के अलावा भारत के सामने और कोई रास्ता नहीं है।

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