सम्पादकीय

बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका गीतांजलि श्री बोलीं, हम सबकी साझा खुशी है यह सम्मान

Rani Sahu
28 May 2022 12:00 PM GMT
बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका गीतांजलि श्री बोलीं, हम सबकी साझा खुशी है यह सम्मान
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मैंने यह नहीं सोचा था कि मेरी किताब 'रेत समाधि' यहां तक पहुंचेगी और मुझे इसके अंग्रेजी संस्करण 'टूंब आफ सैंड' के लिए मेरी अनुवादक डेजी राकवेल के साथ बुकर सम्मान मिलेगा

गीतांजलि श्री।

मैंने यह नहीं सोचा था कि मेरी किताब 'रेत समाधि' यहां तक पहुंचेगी और मुझे इसके अंग्रेजी संस्करण 'टूंब आफ सैंड' के लिए मेरी अनुवादक डेजी राकवेल के साथ बुकर सम्मान मिलेगा। किताब लिखने के पीछे कभी ऐसी सोच भी नहीं रही कि जवाब में पाठकों के भरोसे के अलावा कुछ मिले। वह बेशक मुझे पर्याप्त मिला। पहली बार हंस में प्रकाशित कहानी से लेकर अब तक। बुकर पुरस्कार बेशक मेरे लिए एक बड़ी खुशी है, लेकिन उससे भी अधिक ख़ुशी इस बात की है कि इस बार यह एक हिंदी किताब को मिला है। यह हम सबकी साझा खुशी है। मैंने हिंदी साहित्य का अध्ययन व्यवस्थित रूप में नहीं किया। मैं इतिहास की विद्यार्थी थी और तीस साल की उम्र तक मेरा लेखक मेरे भीतर ही कहीं गुम था। जिंदगी की और तमाम उलझनें थीं। युवावस्था का उत्साह, पुरानी मान्यताओं से अकुलाहट, कुछ नया करने की इच्छा और साथ ही अपने भविष्य की चिंताएं भी।

मुझे हिंदी पट्टी के कई शहरों में रहने, सीखने का मौका मिला। पिता सरकारी नौकरी में थे। उनका तबादला होता रहता था, सो उनके साथ यहां-वहां रहते हुए हिंदी को करीब से जाना। जिया। इससे वह कमी पूरी हुई, किसी हद तक, जो हिंदी के विश्वविद्यालयी अध्ययन के अभाव में रह गई थी। 'माई' मेरा पहला उपन्यास था। वह बहुत सहज ढंग से लिखा गया। धीरे-धीरे उसने हिंदी पढऩे-लिखने वालों के बीच अपनी एक जगह बनाई। 'हमारा शहर उस बरस' की तरफ भी लोगों का ध्यान गया। लिखने से पहले मैं कोई फार्मूला नहीं बनाती। यह दरअसल एक यात्रा होती है। एक तरफ आप अपने पात्रों को रच रहे होते हैं, वहीं आपके पात्र आपकी भाषा और आपको भी रच रहे होते हैं। लिखना सिर्फ अपने जाने हुए को दुनिया को बताना नहीं होता। अपने आपको जानने की प्रक्रिया भी होता है।
हर उपन्यास या कहानी को शुरू करना मेरे लिए एक यात्रा को शुरू करना है। अगर आपके पास एक लेखक-मन है तो दुनिया के साथ संवाद करने का आपका एक विशिष्ट तरीका होता है। कहा नहीं जा सकता कि कब कौन-सी बात, कौन-सा संवाद, कौन-सी छवि आपके भीतर की उमड़-घुमड़ से जाकर जुड़ जाती है और आप लिखने बैठ जाते हैैं। कहानी जब अपनी आत्मा को पा लेती है, अपने केंद्र को जान लेती है तो आपके किरदार ही बताने लगते हैं कि आप कहां जाएं, किधर जाएं, दाएं या बाएं। मेरी रचना अपना आरंभ खोजती है और फिर उस रूह की तलाश में निकलती है जो आखिरकार मेरी कलम की मार्गदर्शक बनती है।
सभी लिखने वाले यह जानते हैं कि उनके कथानक भी और उनके पात्र भी उनके आसपास ही कहीं होते हैं। कल्पना की कोई भी उड़ान आपको उस यथार्थ से बाहर नहीं ले जा सकती जिसमें आप जीते हैं, जो आपके आसपास मौजूद होता है। 'रेत-समाधि' ने जब अपनी लय पकड़ी, तो हर कृति की तरह बहुत कुछ उसने खुद ही तय किया। मैं लिखती रही। कुछ चीजें एक क्षण में आ गईं, कुछ चीजों ने बहुत मेहनत भी करवाई। मैं जानती गई कि हमारे इर्द-गिर्द जो भी है वह आपस में जुड़ा हुआ है। जीव हो या जड़-सभी चेतना की कोई न कोई अवस्था हैं। सड़कें, गलियां, इमारतें भी सिर्फ पत्थर, मिट्टी या सीमेंट नहीं हैं। उन्होंने भी बहुत कुछ भोगा होता है।
लिखने की प्रेरणा, मैं कहूं तो शायद किसी भी ईमानदार लेखक के लिए पुरस्कार नहीं होते। मैंने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि मुझे इस किताब पर दुनिया का इतना बड़ा पुरस्कार मिलेगा। ऐसा मुझसे हो सकेगा, यह सोचना भी मेरे लिए मुश्किल था। यह पुस्तक और इसकी रचनाकार दक्षिण एशियाई भाषाओं की समृद्ध साहित्यिक परंपरा से जुड़े हैं। विश्व का साहित्य इन भाषाओं के अनेक लेखकों की लेखनी तक पहुंचकर निश्चय ही समृद्ध होगा और फिर यह हिंदी में लिखा गया उपन्यास है। उस भाषा का जिसमें अनेक लेखक हैैं, जो अगर अनूदित होकर दुनिया के सामने आएं तो और पुरस्कारों के हकदार साबित होंगे।
एक भाषा के रूप में हिंदी ने पिछले दशकों में बहुत विकास किया है। रचनात्मकता के लिहाज से भी और विस्तार के लिहाज से भी। इस पुरस्कार के माध्यम से उसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान के सिलसिले में अगर मेरी कोई सकारात्मक भूमिका बनती है, तो निश्चय ही यह मेरे लिए सुखद है। भाषा सिर्फ शब्दावली या वर्णमाला नहीं होती, वह एक पूरी संस्कृति, एक जीता-जागता व्यक्तित्व होती है। मेरे लिए भाषा सिर्फ अपनी बात कहने का माध्यम भर नहीं है। रचना में वह बाकायदा एक पात्र, एक चरित्र, एक घटक के रूप में मौजूद होती है। वही है जिसकी छवियां अंतत: पाठक के अवचेतन में लंबे समय के लिए अंकित हो जाती हैं। यही पात्रों को उनका पर्यावरण देती है और पाठकों को एक स्मृति। पढऩे वालों ने बताया कि 'रेत-समाधि' में भाषा का कुछ ऐसा इस्तेमाल मैं कर पाई हूं, जो अलग है, जो उसे एक बड़ा अर्थ देता है। मैंने इसमें गांव-जवार में बोले जाने वाले शब्दों से भी परहेज नहीं किया है। आखिर इसी तरह कोई भी भाषा समृद्ध होती है।
आभार डेजी राकवेल का जिनके उद्यम से यह उपन्यास अंग्रेजी के माध्यम से एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचा और आभार भारतीयता के उस सघन अनुभव का जिसके कैनवास पर यह रचना उकेरी जा सकी। इससे पहले यह उपन्यास फ्रेंच भाषा में भी आ चुका है। उसके लिए मैं फ्रेंच अनुवादक भी आभारी हूं। और हिंदी समेत उन तमाम भारतीय भाषाओं और उनके लेखकों की भी जिनकी रचना-परंपरा मुझ तक और मेरी पीढ़ी के और लेखकों तक आती है। हमें समृद्ध करती है।

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