सम्पादकीय

बोल्सोनारो कमजोर नहीं

Gulabi Jagat
4 Oct 2022 8:33 AM GMT
बोल्सोनारो कमजोर नहीं
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By NI Editorial

ब्राजील में भी साबित यह हुआ कि आज के दौर में निर्णायक मौकों पर धुर-दक्षिणपंथ और दक्षिणपंथ का प्रभावशाली गठबंधन बन जाता है। किसी समाज में ये ताकतें चुनाव परिणाम को ठोस ढंग से प्रभावित करने की स्थिति में रहती हैँ।
ब्राजील के राष्ट्रपति चुनाव में राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो वामपंथी नेता लुई इनेशियो लूला दा सिल्वा से पीछे रहे। लेकिन दो अक्टूबर को हुए मतदान की यह असली कहानी नहीं है। असल कहानी यह है कि उन्होंने तमाम जनमत सर्वेक्षणों को झुठलाते हुए लूला को कड़ी टक्कर दी और अंतिम निर्णय को मतदान के अंतिम चरण तक पहुंचाने में सफल रहे। अब राष्ट्रपति चुनने के लिए मतदान का दूसरा चरण 30 अक्टूबर को होगा। जनमत सर्वेक्षणों में बोल्सोलनारो को 30 से 35 प्रतिशत तक वोट मिलने की संभावना जताई गई थी। अगर ये अनुमान सही होता, तो लूला पहले ही चरण में जीत जाते। मगर असल में बोल्सोनारो ने 43 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए। इस तरह वे लूला से पांच प्रतिशत वोटों से पीछे रहे। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि दूसरा चरण भी लूला के लिए आसान नहीं होगा। दरअसल, राष्ट्रपति चुनाव के साथ ही हुए संसदीय चुनावों के नतीजों पर भी गौर करें, तो मिली-जुली नई सियासी सूरत उभरी मालूम पड़ती है। बोल्सोनारो धुर-दक्षिणपंथी नेता हैं। बल्कि कई टीकाकार उन्हें नव-फासीवादी भी कहते हैँ। वे विज्ञान, पर्यावरण संरक्षण और मानव अधिकारों की खुलेआम खिल्ली उड़ाते हैँ। आम धारणा है कि उनके इस नजरिए की वजह से ब्राजील को कोरोना महामारी की जोरदार मार झेलनी पड़ी।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 21 करोड़ आबादी वाले इस देश में कोविड-19 संक्रमण से सात लाख से ज्यादा लोग मरे। इससे राजनीतिक पर्यवेक्षकों को लगता था कि चुनाव में बोल्सोनारो के खिलाफ आंधी चलेगी। लेकिन ब्राजील में भी दूसरे लोकतांत्रिक देशों की तरह साबित यह हुआ कि आज के दौर में निर्णायक मौकों पर धुर-दक्षिणपंथ और दक्षिणपंथ का प्रभावशाली गठबंधन बन जाता है। किसी समाज में आर्थिक हितों और सामाजिक नजरिए के कारण इन ताकतों की आबादी इतनी रहती है कि वे चुनाव परिणाम को ठोस ढंग से प्रभावित कर पाएं। चूंकि अभिजात्यवादी मीडिया को जमीन के नीचे चल रही प्रक्रियाओं का अंदाजा नहीं रहता, इसलिए वे अपने घिसे-पिटे फॉर्मूलों के आधार चुनाव नतीजों का अनुमान लगाते हैँ। अमेरिका से लेकर यूरोपीय देशों और यहां तक कि भारत में इस बात की पुष्टि बीते एक दशक के दौरान बार-बार हुई है।
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