- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- बोल कुबोल
Written by जनसत्ता; संसद की अपनी गरिमा है, इसलिए उसकी कार्यवाही के दौरान सांसदों से भी अपेक्षा की जाती है कि वे मर्यादित भाषा का प्रयोग करें। मगर विचित्र है कि कुछ सदस्य कई बार इस तकाजे का ध्यान नहीं रखते, जिसकी वजह से उन्हें कार्यवाही के दौरान पीठासीन अधिकारी को टोकना और मर्यादा का ध्यान दिलाना पड़ता है। ऐसा भी नहीं कि केवल विपक्ष भाषा की मर्यादा लांघने का प्रयास करता है, कई बार सत्तापक्ष भी ऐसा करता है। इसलिए पिछली कार्यवाहियों के मद्देनजर लगभग हर साल पीठासीन अधिकारी कुछ ऐसे शब्दों को चिह्नित करते हैं, जिनका संसद में प्रयोग अशोभन लगता या जिसका ध्वन्यार्थ आपत्तिजनक होता है।
अभी जिन शब्दों को असंसदीय करार दिया गया है, उसे लेकर विपक्ष खासा हंगामे पर उतर आया है। उसका कहना है कि उन्हीं शब्दों को असंसदीय करार दिया गया है, जो सरकार के व्यवहार और कामकाज को लेकर प्राय: प्रयुक्त होते रहे हैं। विपक्ष का कहना है कि वह उन शब्दों का इस्तेमाल करेगा, अगर सदन को उन्हें निकालना है, तो निकाल दे। इस पर लोकसभा अध्यक्ष ने स्पष्ट किया है कि दरअसल असंसदीय करार दिए गए शब्दों के प्रयोग पर रोक नहीं है, उन्हें सदन के दस्तावेजों में शामिल नहीं किया जाएगा।
संसद की सारी कार्यवाही दर्ज होती है। सारे सदस्यों के भाषण दस्तावेज रूप में संकलित होते हैं। लोकसभा अध्यक्ष का कहना है कि असंसदीय करार दिए गए शब्दों को उन दस्तावेजों में शामिल नहीं किया जाएगा। मगर यह स्पष्ट नहीं है कि जब संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होता है, तो उसमें से उन शब्दों को कैसे छांटा जाएगा। शायद इसके लिए कोई तकनीकी व्यवस्था हो।
मगर विवाद इस बात को लेकर नहीं है कि वे शब्द संसदीय दस्तावेजों में रखे जाएंगे या नहीं, विवाद इस बात को लेकर है कि जिन शब्दों को असंसदीय करार दिया गया है, उसके पीछे तर्क क्या है। उन शब्दों या पदों के प्रयोग के बिना सरकार की आलोचना कैसे संभव हो सकेगी।
यानी सरकार परोक्ष रूप से उन शब्दों और पदों को असंसदीय करार देकर एक तरह से संसद में अपनी आलोचना पर रोक लगाने का प्रयास कर रही है। सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि सत्ता पक्ष इसी तरह के ध्वन्यार्थ वाले जिन शब्दों का प्रयोग विपक्ष के लिए करता रहा है, उन्हें असंसदीय नहीं ठहराया गया। इसमें कुछ शब्दों को लेकर बहुत बहस हो रही है कि वे कैसे असंसदीय हो सकते हैं, जैसे तानाशाह या तानाशाही। इन शब्दों का प्रयोग सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों खूब करते रहे हैं।
सवाल यह भी है कि क्या केवल कुछ शब्दों को असंसदीय ठहरा देने से सदन की मर्यादा सुरक्षित रह पाएगी। कई बार बहुत सुसंस्कृत शब्दों को भी बोलते वक्त लहजा बदल दिया जाए, तो वे असंसदीय कहे जाने वाले शब्दों से ज्यादा आपत्तिजनक हो उठते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष अक्सर एक-दूसरे पर प्रहार करते वक्त लहजे से चोट किया करते हैं।
इस तरह सदन में कई बार शीर्ष पदों से विपक्ष या सत्ता पक्ष के नेताओं पर व्यक्तिगत प्रहार किए गए हैं, किए जाते रहे हैं। केवल संसदीय भाषा में बोलने भर से सदन की मर्यादा नहीं बचती, नीयत साफ होनी चाहिए और लहजा भी। मर्यादाएं दोनों तरफ से टूटती देखी जाती हैं। सदन में जिसकी जितनी भारी संख्या होती है, अक्सर वही सदन की मर्यादा का ध्यान भी नहीं रखता देखा जाता है। इसलिए बोल और कुबोल में फर्क करना होगा।