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सामाजिक विषमता कब बनेगी राजनीतिक बहस का मुद्दा?
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले 9 साल के इंद्र का जन्म कथित नीची जाति वाले एक परिवार में हुआ था, और इस 'अपराध' की सजा उसे इसी वर्ष 20 जुलाई को मिली. नीची जाति में जन्मने के कारण उसे यह अधिकार नहीं था कि वह स्कूल के कथित सवर्ण अध्यापक के लिए निर्धारित मटके का पानी पी सके. जाने-अनजाने में उसने यह अधिकार पाने की कोशिश की और कहते हैं सजा देने वाले अध्यापक ने उसे इतनी बुरी तरह से पीटा कि डॉक्टरों की सारी कोशिशों के बावजूद 13 अगस्त को यानी स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वाले दिन से मात्र 2 दिन पहले इंद्र की मृत्यु हो गई.
हालांकि पुलिस का यह कहना है कि अभी तक उसे इस बात का पुख्ता सबूत नहीं मिला है कि उसकी पिटाई इसी कारण से हुई थी, पर गांव के लोगों और इंद्र के साथ पढ़ने वाले बच्चों में से कुछ का कहना है कि पुलिस झूठ बोल रही है. इन पर दबाव डाला जा रहा है कि वे इंद्र के साथ हुई मारपीट की गवाही न दें.
इस मामले की सच्चाई कुछ भी हो, पर हकीकत यह भी है कि देश में दलितों के साथ इस प्रकार के अत्याचार आजादी पाने के 75 साल बाद भी हो रहे हैं. आए दिन इस तरह की घटनाएं घटती हैं. संसद में सरकार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार वर्ष 2018-2020 के दौरान देश में दलितों पर अत्याचार के 129000 मामले दर्ज हुए थे. दलितों अथवा नीची समझी जाने वाली जातियों के खिलाफ होने वाले मामलों में कमी आने के बजाय यह संख्या बढ़ती जा रही है. हमारे नेता, हमारी सरकारें इस संदर्भ में आश्वासन अवश्य देते रहे हैं, पर यह कोरे आश्वासनों वाली परंपरा का ही हिस्सा है.
इस हकीकत को भी याद रखा जाना जरूरी है कि ऐसे दर्ज मामलों के मात्र बीस प्रतिशत ही किसी निर्णय तक पहुंच पाते हैं. आधे से अधिक मामले तो सामाजिक दबावों के चलते बीच में ही दम तोड़ देते हैं.
उम्मीद की जानी चाहिए कि राजस्थान के जालोर जिले के गांव में रहने वाले बालक इंद्र की 'हत्या' का यह मामला तार्किक परिणिति तक पहुंचेगा. पर आजादी के अमृत-काल की शुरुआत में घटी यह घटना देश और समाज के सामने मुंह बाये खड़े मुद्दों का एक दर्दनाक उदाहरण है -और इस बात की याददहानी भी कि विकास की परिभाषा में कहीं न कहीं सामाजिक विषमता का यह मुद्दा भी शामिल होना चाहिए. दुर्भाग्य से, जब भी विकास की बात होती है, रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित रह जाती है. या फिर हमारे नेता सड़कों की बात करते हैं, हर घर में शौचालय और नल-जल की दुहाई देने लगते हैं.
हां, यह सभी जरूरी है हमारे विकास के लिए, पर यही विकास नहीं है. कहीं न कहीं सामाजिक सोच भी हमारे विकास की समझ का हिस्सा बनना चाहिए. सामाजिक विषमता का अभिशाप हमारे जीवन से बाहर जाए, यह मानवीय विकास की एक महत्वपूर्ण शर्त है. विकास का जो राजमार्ग हमने अपने लिए चुना है, वहां तक पहुंचने के लिए जिन गलियों से होकर गुजरना होता है, उनकी नितांत उपेक्षा हो रही है. हम यह भी याद नहीं रखना चाहते हैं कि समता और बंधुता के आधार पर खड़ा संविधान देने वाले डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि यदि हमने सामाजिक स्वतंत्रता की ओर ध्यान नहीं दिया तो हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता भी खतरे में पड़ जाएगी.
यह सच है कि आज एक दलित, आदिवासी महिला हमारी राष्ट्रपति हैं. इस पर गर्व कर सकते हैं हम. यह दलितों के विकास का एक प्रतीक हो सकता है, पर प्रतीक का वास्तविक बनना जरूरी है. यह तब होगा जब किसी इंद्र का अपने कथित सवर्ण अध्यापक के मटके से पानी पीना अपराध नहीं माना जाएगा.

Rani Sahu
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