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By वेद प्रताप वैदिक
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के निधन पर सारे देश का ध्यान गया है. राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने भी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की है. स्वरूपानंदजी के व्यक्तित्व की यह खूबी थी कि वे जो भी आलोचना या सराहना करते थे, उसके पीछे उनका अपना कोई राग-द्वेष नहीं था लेकिन उनकी अपनी राष्ट्रवादी दृष्टि थी. उन्हें जो ठीक लगता था, वह वे बेधड़क होकर बोल देते थे.
मेरा और उनका आत्मीय संपर्क 50 साल से भी ज्यादा पुराना था. मेरा करपात्री महाराज और रामराज्य परिषद के नेताओं से बचपन से घनिष्ठ संबंध रहा है. स्वरूपानंदजी भी रामराज्य परिषद में काफी सक्रिय थे. 2002 में गुजरात में हुए दंगों का उन्होंने दो-टूक विरोध किया था. उन्होंने समान आचार संहिता, गोरक्षा अभियान, राम मंदिर आदि कई मामलों में अटलजी का डटकर समर्थन किया था. वे कोरे धर्मध्वजी और भगवाधारी संन्यासी भर नहीं थे. उन्होंने 18 साल की आयु में जेल काटी. वे 1942 में स्वाधीनता आंदोलन के तहत सत्याग्रह करते हुए पकड़े गए थे. 1950 में उन्होंने संन्यास ले लिया और 1981 में वे शंकराचार्य की उपाधि से विभूषित हुए.
मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में जन्मे इन स्वामीजी का पहला नाम पोथीराम उपाध्याय था. लेकिन उनके पांडित्य और साहस की ध्वजा उनके युवा-काल से ही फहराने लगी थी. लोग उन्हें 'क्रांतिकारी साधु' कहा करते थे. वे द्वारका शारदापीठ और बद्रीनाथ की ज्योतिष पीठ के भी शंकराचार्य रहे.
उन्होंने राजीव-लोंगोवाल समझौता करवाने और सरदार सरोवर विवाद हल करवाने में भी सक्रिय भूमिका अदा की थी. वे अंग्रेजी थोपने के भी कट्टर विरोधी थे. वे भाषाई आंदोलन में हमेशा मेरा साथ देते थे. वे यह भी चाहते थे कि दक्षिण और मध्य एशिया के सभी राष्ट्रों का एक महासंघ बने ताकि प्राचीन आर्यराष्ट्रों के लोग बृहद परिवार की तरह रह सकें.
Rani Sahu
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