- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- ब्लॉग: असफल साबित होने...
x
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
शंघाई सहयोग संगठन का दो दिनी समरकंद शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ. इस बार यह संगठन तमाम विरोधाभासों का गुच्छा नजर आया. भारत को छोड़कर कमोबेश सारे सदस्य पश्चिमी राष्ट्रों के खिलाफ खड़े नजर आते हैं. लेकिन इस संगठन में अनेक मुल्कों के बीच गंभीर मतभेद भी हैं. रूस और चीन खुलकर इसे अमेरिका विरोधी मंच बनाना चाहते हैं. कुछ इसके समर्थन में और कुछ इसके पक्ष में दिखाई देते हैं. आपसी असहमतियों के चलते यह संस्था बहुत ठोस काम नहीं करने वाली एक प्रतीक संस्था बनती जा रही है.
सदस्य देशों का भला करने की बात तो दूर, उनके संबंधों की कड़वाहट दूर करने में भी यह संगठन नाकाम दिखाई दे रहा है. समरकंद शिखर सम्मेलन से भारत के लिए यही खास बात है कि वह अध्यक्ष चुना गया है तथा अगले बरस वह सम्मेलन की भारत में मेजबानी करेगा. इसके अलावा ईरान को स्थायी सदस्यता मिलना दूसरी महत्वपूर्ण बात है. शायद इसके पीछे अमेरिका को करारा उत्तर देना भी रहा होगा.
अपनी स्थापना की रजत जयंती मना चुके इस संगठन की शुरुआत तो पांच सदस्यों ने की थी, लेकिन देश आते गए और कारवां बनता गया. अब आठ मुल्क - भारत, चीन, रूस, पाकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिजस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान इसका हिस्सा हैं. भारत और पाकिस्तान पांच साल से इसके नवेले साथी हैं. इनके अतिरिक्त अफगानिस्तान, बेलारूस, ईरान और मंगोलिया को बतौर पर्यवेक्षक शामिल किया गया है.
श्रीलंका, तुर्की, नेपाल, कंबोडिया, आर्मीनिया, अजरबैजान, सऊदी अरब, मिस्र, कतर, बहरीन, मालदीव, संयुक्त अरब अमीरात तथा म्यांमार इस मंच के संवाद सहयोगी हैं. मगर देखा जाए तो वास्तविक अर्थों में संवाद टूटा हुआ है. भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों में कोई संवाद नहीं हुआ. यह देश आर्थिक बदहाली के चरम दौर का सामना कर रहा है. पर भारत से कारोबारी प्राणवायु लेने से झिझकता है. उसके विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने भारत के बारे में अपने आलोचक तेवर बरकरार रखे.
इसी तरह मिस्र के साथ भी भारत के संबंधों में ठंडापन बरकरार है. संगठन ने इस मामले में भी मदद नहीं की. चीन के साथ भारत के रिश्तों में जमी बर्फ नहीं पिघली. सीमा पर भले ही चंद रोज पहले सेनाएं कुछ पीछे हटी हों, पर वे दोनों राष्ट्रों के बीच कुछ बेहतर माहौल नहीं बना सकी हैं.
अलबत्ता चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ की मुलाकात को तनिक आश्चर्य से देखा गया. दोनों राष्ट्रों ने आपसी भरोसा बढ़ाने वाले कुछ खास समझौतों पर काम किया. भारत के संदर्भों को एकबारगी अलग कर दें तो भी सदस्य राष्ट्रों को रूस और यूक्रेन युद्ध समाप्त कराने में कोई दिलचस्पी अब नहीं रही है और न ही चीन तथा ताइवान के बीच तनाव कम करने पर विचार हुआ.
अफगानिस्तान की गाड़ी पटरी पर लाने की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया तो जर्जर हाल श्रीलंका के लिए भी किसी समग्र कार्ययोजना पर चिंतन की आवश्यकता नहीं समझी गई. अमेरिकी बंदिशों के बाद ईरान की दुश्वारियां कम करने की ओर भी किसी का ध्यान नहीं गया और नेपाल में चल रही चीनी साजिशों का तोड़ भी किसी ने नहीं सोचा.
इसके बावजूद यदि कोई सकारात्मक बिंदु खोजना ही हो तो तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोगान और प्रधानमंत्री मोदी की मुलाकात तनिक असामान्य सी कही जा सकती है. फिलहाल तुर्की शंघाई सहयोग संगठन में डायलाग पार्टनर यानी संवाद साझीदार के तौर पर है और वह इस संस्था की स्थायी सदस्यता चाहता है. इसके लिए उसे शंघाई सहयोग संगठन के सभी सदस्य देशों की सहमति चाहिए. भारत की सहमति दो कारणों से महत्वपूर्ण हो जाती है.
एक तो भारत अब इस संगठन का अध्यक्ष है और दूसरा यह कि तुर्की की विदेश नीति अनेक वर्षों से पाकिस्तान की ओर झुकी है. कश्मीर के मसले पर उसने हरदम खुलकर पाकिस्तान का समर्थन किया है. क्या वह पाकिस्तान से अब अपने रिश्तों पर पुनर्विचार करेगा ? भारतीय प्रधानमंत्री से मिलने के बाद तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप अर्दोगान ने पत्रकारों से स्पष्ट कहा कि वे संगठन की स्थायी सदस्यता चाहते हैं.
अजीब सी बात थी कि इसके बाद वे अपनी निर्धारित यात्रा पर अमेरिका चले गए. उनका यह रवैया सदस्य देशों को आश्चर्य में डालने वाला था. विचित्र यह है कि तुर्की नाटो का सदस्य भी है और नाटो की ओर यूक्रेन के झुकाव के चलते ही रूस ने जंग छेड़ी है. इसका क्या अर्थ यह लगाया जाए कि तुर्की के राष्ट्रपति नाटो से संबंध तोड़ना चाहते हैं? दूसरी बात क्या तुर्की के नाटो में बने रहने से रूस को कोई परेशानी नहीं रही है. यह ठीक है कि यूक्रेन की सीधी सीमाएं रूस से सटी हुई हैं, लेकिन तुर्की की सीमा भी बहुत दूर नहीं है.
ऐसे कई नए सवाल अंतरराष्ट्रीय मंच पर तैरने लगे हैं. विदेश नीति के नजरिये से देखें तो भारत की दुविधा और चुनौतियां बढ़ गई हैं. एक समूह वह है, जिसके प्रमुख देश उसके साथ नहीं हैं, मगर भौगोलिक परिस्थितियों और ऐतिहासिक कारणों से उनके साथ रहना जरूरी है.
दूसरा समूह पश्चिम और कुछ यूरोपीय देशों का है. उनके साथ भी हिंदुस्तान के गहरे कारोबारी और रणनीतिक संबंध हैं. मौजूदा विश्व जिस तरह शनैः शनैः दो खेमों में विभाजित होता दिखाई दे रहा है, वह क्या एक बार फिर गुट निरपेक्षता की नीति अपनाने के लिए भारत को बाध्य करेगा अथवा उसे साफ-साफ एक धड़े के साथ अपनी प्रतिबद्धता जतानी होगी? इसे ध्यान में रखते हुए भारत के लिए आने वाले दिन मुश्किल भरे हो सकते हैं.
Rani Sahu
Next Story