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शब्दों के अर्थ, उनकी भूमिकाएं और उनके प्रयोग के संदर्भ किस तरह देश और काल द्वारा अनुबंधित होते हैं
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
शब्दों के अर्थ, उनकी भूमिकाएं और उनके प्रयोग के संदर्भ किस तरह देश और काल द्वारा अनुबंधित होते हैं, यह सबसे प्रखर रूप में आज 'धर्म' शब्द के प्रयोग में दिखाई पड़ता है। आजकल बहुधा स्थानापन्न की तरह प्रयुक्त धर्म, मजहब, विश्वास, मत, पंथ, रिलीजन आदि विभिन्न शब्द अर्थ की दृष्टि से एक शब्द-परिवार के हिस्से तो हैं पर सभी भिन्न अर्थ रखते हैं। मूल 'धर्म' शब्द का अब प्रयोग-विस्तार तो हो गया है पर अर्थ का संकोच हो गया है। दुर्भाग्य से, धार्मिक होना सांप्रदायिक (कम्युनल) माना जाने लगा है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से धर्म अस्तित्व के गुणों या मूल स्वभाव अथवा प्रकृति को व्यक्त करता है जो धारण करने/ होने/ जीने/ अस्तित्व को रेखांकित करते हैं। इस तरह यह भी कह सकते हैं कि धर्म किसी इकाई के अस्तित्व में रहने की अनिवार्य शर्त है। जिस विशेषता के साथ वस्तु अपने अस्तित्व को धारण करती है वह धर्म हुआ। मनुष्य का जीवन जिन मूल सिद्धान्तों पर टिका है वे धर्म को परिभाषित करते हैं। तभी यह कहा गया कि जो धर्म से रहित है वह पशु के समान है, 'धर्मेण हीना: पशुभि: समाना:'।
मनुष्य के लिए अपने अस्तित्व का सवाल किसी जड़ पदार्थ से इस अर्थ में भिन्न और अधिक जटिल है कि उसे खुद अपनी (अर्थात् अपने अस्तित्व की) चेतना रहती है और इस चेतना के विषय में वह विचार करने में भी सक्षम है। पशुओं से ऊपर उठ कर मनुष्य जो हो चुका है (अर्थात् अतीत) और जो होने वाला है (अर्थात् भविष्य) दोनों ही पक्षों पर विचार कर पाने में सक्षम है। उसका अस्तित्व सिर्फ दिया हुआ (प्रकृति प्रदत्त) नहीं है बल्कि स्वयं उसके द्वारा भी (अंशतः ही सही) रचा-गढ़ा जाता रहता है। सुविधा के लिए इस तरह के कार्यकलापों को हम सभ्यता और संस्कृति का नाम दे देते हैं। अत: यह कहना अधिक ठीक होगा कि मानव अस्तित्व का प्रश्न नैसर्गिक या प्राकृतिक मात्र नहीं है। वह अस्तित्व के मिश्रित (हाइब्रिड!) रूप वाला है जिसमें प्रकृति और संस्कृति दोनों ही शामिल होते हैं और वह दोनों से संबंध रखता है और अपनी नियति को निर्धारित करता है।
भारतीय समाज की स्मृति में प्राचीन काल से ही धर्म निरंतर बना रहा है। धर्म को आचरण की अंतिम निरपेक्ष सी कसौटी के रूप में ग्रहण किया जाता है जो जीवन के स्फुरण और उसको स्पंदित बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
भारतीय मूल की प्रमुख धार्मिक विचार प्रणालियां धर्म को कर्तव्य, आदर्श, विवेक और औचित्य के सिद्धांतों के पुंज के रूप में ग्रहण करती हैं और उनकी ओर सतत आगे बढ़ने का आग्रह किया गया है। जीवन के क्षरण को मात देने और जीवन को समग्रता में जीने का उद्यम धर्म की परिधि में ही किया जाना चाहिए। इसके लिए ईश्वर या परम सत्ता या चेतना को केंद्रीय महत्व दिया गया जो अमूर्त और सर्वव्यापी है। जीवन की व्यापक सत्ता पर चिंतन वैदिक काल से ही चला आता रहा है और इस विचार में जड़ चेतन सभी शामिल किए गए हैं। यदि सभी धर्म के अनुकूल आचरण करते हैं तो समृद्धि और विकास का मार्ग प्रशस्त होगा। जब यह कहा गया कि 'धर्म की रक्षा से ही सभी की रक्षा हो सकती है' तो उसका आशय व्यापक सर्व समावेशी जीवन-धर्म था।
विचार करें तो धर्मानुकूल आचरण से धरती का भविष्य सुरक्षित हो सकेगा और टिकाऊ विकास का लक्ष्य व जलवायु-परिवर्तन के वैश्विक संकट का भी निदान मिलेगा। समृद्ध और आत्म-निर्भर भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए भी यही मार्ग है।

Rani Sahu
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