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वर्ष 1995 से प्रत्येक साल 17 जून को विश्व रेगिस्तान एवं सूखा रोकथाम दिवस मनाया जाता है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
वर्ष 1995 से प्रत्येक साल 17 जून को विश्व रेगिस्तान एवं सूखा रोकथाम दिवस मनाया जाता है. इसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय सहयोग से बंजर और सूखे के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए जन जागरूकता को बढ़ावा देना है और भविष्य में रहने के लिए भूमि, पर्यावरण एवं जल आदि समस्याओं के लिए सतर्क करना है.
मरुस्थलीकरण तब होता है जब उपजाऊ भूमि मानव गतिविधि के माध्यम से मिट्टी के अत्यधिक दोहन के कारण शुष्क हो जाती है. किसी ग्रह के जीवन चक्र के दौरान मरुस्थल स्वाभाविक रूप से बनते हैं, लेकिन जब मानव के अति दोहन एवं प्रकृति के प्रति उपेक्षा के कारण मिट्टी में पोषक तत्वों की भारी और अनियंत्रित कमी होती है, तो यह मरुस्थलीकरण की ओर ले जाता है.
वहीं बढ़ती विश्व जनसंख्या के कारण रहने के लिए अधिक भूमि की आवश्यकता होती है. साथ ही मनुष्यों और जानवरों दोनों के लिए भोजन एवं पानी की मांग बढ़ जाती है. इन मांगों और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अच्छी उपजाऊ भूमि का संयम एवं विवेकपूर्वक उपयोग जरूरी है.
वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र ने बंजर और सूखे से जुड़े मुद्दे पर सभी का ध्यान आकर्षित करने और सूखे व मरुस्थलीकरण का दंश झेल रहे देशों में मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन के कार्यान्वयन के लिए विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम और सूखा दिवस की घोषणा की.
इस दिवस का उद्देश्य सभी स्तरों पर मजबूत व सामुदायिक भागीदारी और सहयोग में निहित है. यह दिन मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे के मुद्दों व इससे निपटने के तरीके के बारे में सभी को जागरूक करने के लिए आयोजत किया जाता है. विश्व स्तर पर, 23 प्रतिशत भूमि अब उत्पादक नहीं है, वहीं 75 प्रतिशत में ज्यादातर भूमि को कृषि के लिए उसकी प्राकृतिक अवस्था से बदल दिया गया है.
वर्तमान में भूमि उपयोग में यह परिवर्तन मानव इतिहास में किसी भी समय की तुलना में काफी तेज गति से हो रहा है, और पिछले 50 वर्षों में इसमें तेजी आई है. इसीलिए रेगिस्तान या मरुस्थल के रूप में बंजर, शुष्क क्षेत्रों का विस्तार होता जा रहा है, जहां वनस्पति नहीं के बराबर होती है. यहां केवल वही पौधे पनप सकते हैं, जिनमें जल संचय करने की अथवा धरती के बहुत नीचे से जल प्राप्त करने की अद्भुत क्षमता हो.
इस क्षेत्र में बेहद शुष्क व गर्म स्थिति किसी भी पैदावार के लिए उपयुक्त नहीं होती है. वास्तविक मरुस्थल में बालू की प्रचुरता पाई जाती है. मरुस्थल कई प्रकार के हैं जैसे पथरीले मरुस्थल में कंकड़-पत्थर से युक्त भूमि पाई जाती है. इन्हें अल्जीरिया में रेग तथा लीबिया में सेरिर के नाम से जाना जाता है. चट्टानी मरुस्थल में चट्टानी भूमि का हिस्सा अधिकाधिक होता है. इन्हें सहारा क्षेत्र में हमादा कहा जाता है.
राजस्थान प्रदेश में थार का रेगिस्तान दबे पांव अरावली पर्वतमाला की दीवार पार कर पूर्वी राजस्थान के जयपुर, अलवर और दौसा जिलों की ओर बढ़ रहा है. केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के राजस्थान में चल रहे प्रोजेक्ट में ऐसे संकेत मिल रहे हैं. अब तक 3000 किमी लंबे रेगिस्तानी इलाकों को उत्तर प्रदेश, बिहार और प. बंगाल तक पसरने से अरावली पर्वतमाला रोकती है. कुछ वर्षों से लगातार वैध-अवैध खनन के चलते कई जगहों से इसका सफाया हो गया है.
उन्हीं दरारों और अंतरालों के बीच से रेगिस्तान पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ चला है. यही स्थिति रही तो आगे यह हरियाणा, दिल्ली, यूपी तक पहुंच सकता है. भूमि और सूखा एक जटिल और व्यापक सामाजिक-आर्थिक व पर्यावरणीय प्रभावों के साथ प्राकृतिक खतरे के अतिक्रमण के अलावा किसी भी अन्य प्राकृतिक आपदा की तुलना में अधिक लोगों की मृत्यु और अधिक लोगों को विस्थापित करने के लिए जाना जाता है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि 2025 तक, 1.8 अरब लोग पूर्ण रूप से पानी की कमी का अनुभव करेंगे.
Rani Sahu
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