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By अभय कुमार दुबे
यह देखकर निराशा होती है कि विपक्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाले चेहरे की हास्यास्पद खोज में लगा हुआ है. जब से नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ से बाहर निकल कर महागठबंधन के साथ नाता जोड़ा है, उन्हें 2024 में नरेंद्र मोदी के संभावित प्रतिद्वंद्वी के रूप में दिखाया जा रहा है.
दूसरी तरफ कुछ गैर-भाजपा नेताओं द्वारा ममता बनर्जी और के. चंद्रशेखर राव के नामों को भी मोदी को चुनौती दे सकने वाले नेताओं के रूप में पेश किया जा रहा है. इन सभी के अतिरिक्त राहुल गांधी तो प्रधानमंत्री की दौड़ में पिछले आठ साल से दौड़ ही रहे हैं.
राजनीतिक समीक्षकों को याद होगा कि नब्बे के दशक में क्या हुआ था? 1990 में मंडलीकरण, कमंडलीकरण और भूमंडलीकरण की तिहरी परिघटना के कारण देश की राजनीति और समाज के साथ उसके संबंधों में जबर्दस्त परिवर्तन हुआ था. उस तब्दीली को अपने पक्ष में भुनाने के लिए सक्षम राजनीतिक शक्तियां मैदान में नहीं थीं.
कांग्रेस भूमंडलीकरण की वाहक जरूर थी, लेकिन वह रामजन्मभूमि आंदोलन से निकली हिंदू राजनीति को अपनी ओर खींचने में नाकाम थी. न ही वह पिछड़ी जातियों के राजनीतिक उभार की लाभार्थी हो सकती थी. दरअसल, उसका ग्राफ लगातार गिर रहा था. वह लगातार दुबले होते हाथी की तरह थी जो गठजोड़ राजनीति के दायरे में प्रवेश करने के लिए रणनीतिक रास्ता तलाश रहा था.
भारतीय जनता पार्टी भी अपने दम पर इस नई परिस्थिति का फायदा उठा सकने लायक शक्तिशाली नहीं थी. ऐसे माहौल में छुटभैयों की बन आई थी. किसी भी तरह की राष्ट्रीय छवि से वंचित देवेगौड़ा और गुजराल जैसे नेता ऐसी परिस्थिति में ही प्रधानमंत्री बन सकते थे. इनके अलावा उन दिनों मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बन सकने की संभावनाएं भी मुखर होती रहती थीं.
दस नवंबर, 1990 को विश्वनाथ प्रताप सिंह का प्रधानमंत्रित्व समाप्त हुआ. इसके बाद दशक खत्म होते-होते छह बार प्रधानमंत्री बदला गया. ऐसा लगता है कि मौजूदा विपक्षी राजनीति आज भी नब्बे के दशक की मानसिकता में ही जी रही है. वह मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि तब से अब तक राजनीतिक हालात पूरी तरह से बदल चुके हैं.
विपक्षी दलों को बिना कोई देर किए नब्बे के दशक की मानसिकता से पल्ला छुड़ा लेना चाहिए. बजाय इसके कि प्रधानमंत्री पद के लिए इधर-उधर के नाम उछाल कर वे अपना मजाक बनवाएं, उन्हें पहले यह समझना चाहिए कि राज्यों के चुनाव में भाजपा को हराने भर से वे लोकसभा की जीत के दावेदार नहीं बन जाते. ऐसा पहले होता था. अब वोटर लोकसभा में किसी और पार्टी को एवं राज्य विधानसभा में किसी और पार्टी को वोट देने का फैसला करने की तमीज रखता है.
मोदी को इस बात का एहसास है कि राज्यों में उनका दावा केंद्रीय राजनीति जितना पुख्ता नहीं है. इसलिए राष्ट्रीय एकता और स्वाभिमान के वाहक के रूप में अपनी छवि का नवीकरण करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत के अनावरण के समय उनका भाषण भले ही उनके आलोचकों को अति नाटकीय लगे, लेकिन वह मोदी समर्थकों के लिए थाली में परोसे गए व्यंजन की तरह था. भारत की अर्थव्यवस्था को ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था से आगे दिखाने का प्रचार भी कुछ ऐसा ही प्रभाव डालने की क्षमता रखता है.
एक दिन में ऐसे दो-दो मुद्दे मोदी के खिलाफ किसी भी तरह की एंटीइनकम्बेंसी के अंदेशे को समाप्त कर देते हैं. पिछले दो चुनावों ने दिखाया है कि एक बड़े हिस्से में बहुत ज्यादा जीतने, और दूसरे हिस्सों में कहीं कम या बिल्कुल नहीं जीतने के बावजूद मोदी को बहुमत मिल सकता है. क्या विपक्ष इस परिणाम के दोहराव को गड़बड़ा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर गैर-भाजपा शक्तियों को देना ही होगा.
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