सम्पादकीय

ब्लॉग: भीषण तबाही के बाद अब कैसे बसेगा श्रीलंका और क्या है आगे का रास्ता?

Rani Sahu
15 July 2022 5:46 PM GMT
ब्लॉग: भीषण तबाही के बाद अब कैसे बसेगा श्रीलंका और क्या है आगे का रास्ता?
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श्रीलंका में पिछले लंबे समय से सरकार के निरंकुश आर्थिक कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार, भारी विदेशी कर्ज, भाई-भतीजावाद की बंदरबांट और समाज को बांटने की वजह से भुखमरी के कगार पर पहुंचे देश में भीषण घमासान मचा है

By लोकमत समाचार सम्पादकीय

श्रीलंका में पिछले लंबे समय से सरकार के निरंकुश आर्थिक कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार, भारी विदेशी कर्ज, भाई-भतीजावाद की बंदरबांट और समाज को बांटने की वजह से भुखमरी के कगार पर पहुंचे देश में भीषण घमासान मचा है. सड़कों को घेरने के साथ प्रदर्शनकारी जनता राष्ट्रपति भवन में घुस गई, प्रधानमंत्री आवास को आग लगा दी गई.
हालात से निपट पाने में अक्षम रहे राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे 13 जुलाई को इस्तीफा देने के अपने वादे को पूरा करने के बजाय वायदे को अधर में लटकाकर आधी रात के अंधेरे में सेना के विमान से देश छोड़कर मालदीव भाग गए. अब उनके सिंगापुर होते हुए सऊदी अरब जाने की खबरें हैं. यानी कुल मिलाकर श्रीलंका में हालात बेकाबू हैं. कभी विकासशील देशों के लिए आदर्श अर्थव्यवस्था का प्रतीक बना श्रीलंका आखिर भुखमरी के कगार पर कैसे पहुंचा, ये तो हालात बता ही रहे हैं लेकिन फिलहाल अबूझ सवाल यह है कि श्रीलंका का आगे क्या होगा?
क्या ऐसी ही व्यवस्था चलती रहेगी या जिस तरह से जनआंदोलन तेजी से फैला अब इन हालात में वह व्यवस्था क्या रूप लेती है? यानी कुल मिलाकर कहें तो इतनी तबाही के बाद कैसे बसेगा श्रीलंका?
गौरतलब है कि मई में विक्रमसिंघे सातवीं बार देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने उम्मीद जताई थी कि श्रीलंका इस संकट के दौर से निकल आएगा. पिछले कुछ समय से श्रीलंका जिस संवैधानिक, राजनीतिक संकट और देश के अब तक के भीषणतम आर्थिक संकट से गुजर रहा था, हालात इसी अराजकता की ओर बढ़ रहे थे लेकिन सरकार एक तरह से बेपरवाह सी ही थी.
श्रीलंका मामलों के एक विशेषज्ञ के अनुसार आर्थिक बदहाली, हिंसा और राजनीतिक संकट के लिए सरकार जिम्मेदार रही. सरकार ने जनता के जायज सरोकारों पर ध्यान ही नहीं दिया. राजपक्षे की आर्थिक नीतियां बुरी तरह से असफल साबित हुईं. देश की आर्थिक स्थिति की परवाह नहीं करते हुए राष्ट्रपति ने अपनी लंबी-चौड़ी महत्वाकांक्षी योजनाओं के लिए क्षमता से अधिक कर्ज लिया.
उन्होंने अपने क्षेत्र में हम्बनटोटा बंदरगाह, क्रिकेट स्टेडियम और अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनवाने के लिए अंधाधुंध धन लगाया. फिर कोलंबो हार्बर साउथ कंटेनर टर्मिनल और कोलंबो-कटुनायके एक्सप्रेस-वे के निर्माण में भी यही आलम रहा. उधर श्रीलंका में तेजी से निवेश कर रहे चीन ने श्रीलंका को बहुत कर्ज दिया और उसकी कंपनियां श्रीलंका में निर्माण कार्यों में भी जुटी थीं. धीरे-धीरे श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो गया.
हालांकि 2015 में सिरीसेना राष्ट्रपति चुनाव जीते थे, लेकिन 2019 में राजपक्षे परिवार फिर सत्ता में लौट आया. वर्ष 2020-21 में कोविड ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को बदहाल कर दिया. उसका पर्यटन उद्योग चौपटहो गया. रूस-यूक्रेन युद्ध ने ईंधन और भोजन की कीमतें बढ़ा दीं. आज आलम यह है कि पेट्रोल और ईंधन के लिए जनता 24 घंटे तक कतार में खड़ी रहती है.
राजपक्षे के कुप्रशासन ने स्थिति को सुधारने के बजाय हालात बदतर कर दिए. साल की शुरुआत में ही श्रीलंका का आर्थिक संकट गहरा गया था. श्रीलंका पर एशियाई विकास बैंक, जापान, चीन सहित अन्य की देनदारियां शेष थीं. इसके परिणामस्वरूप वहां ईंधन, खाद्य-पदार्थों और दवाइयों की भारी किल्लत हो गई, जिनका आयात किया जाता था.
यहां यह बात भी अहम है कि श्रीलंका को कर्ज के बोझ से लादने के बाद उसे इस आर्थिक संकट से उबरने में चीन उसका साथ नहीं दे रहा है. एक विशेषज्ञ के अनुसार चीन, जिसने श्रीलंका को विकास और आधारभूत परियोजनाओं का जाल बिछाने के नाम पर कर्ज से लाद दिया था, अब उसने संभवतः अपने खास एजेंडे के तहत पाकिस्तान की ही तरह श्रीलंका को भी इस आर्थिक संकट से निकालने में कोई प्रयास नहीं दिखाया है.
इस सबके बीच देखें तो भारत पूरी सतर्कता बरतते हुए अपने निकट पड़ोसी के इस राजनीतिक संकट से दूर रहकर संकट में घिरी श्रीलंका की जनता के लिए मानवीय सहायता को सर्वोपरि मानते हुए श्रीलंका को मानवीय सहायता दे रहा है. यानी, भारत वहां किसी सरकार को समर्थन देने के बजाय श्रीलंकाई जनता के हितों को प्राथमिकता देने वाले पड़ोसी की भूमिका अदा कर रहा है.
विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने भी श्रीलंका के आर्थिक संकट को गंभीर मामला बताते हुए कहा कि इस समय भारत का मकसद जनता की मदद करना है. मोदी सरकार की 'पड़ोस सबसे पहले' की नीति के तहत भारत अपने पड़ोसी की उसकी जरूरत के मुताबिक मदद कर रहा है. वैसे भी श्रीलंका भारत के लिए पुराने सांस्कृतिक, सामाजिक रिश्तों के साथ सामरिक दृष्टि से भी बहुत अहम है.
एक विशेषज्ञ के इस मत को समझना होगा कि श्रीलंका संकट को लेकर भारत को सतर्क रहने की जरूरत है. भारत के हित राजनीतिक रूप से स्थिर श्रीलंका में हैं. हाल के वर्षों में श्रीलंका में चीन की बढ़ती आर्थिक-सामरिक मौजूदगी भारत के लिए चिंता का विषय है.
बहरहाल, श्रीलंका जैसे विभिन्न जातीय व अन्य विविधताओं वाले देश के लिए यह दौर एक नई तरह की राजनीति के उदय का भी समय हो सकता है जहां लोकतांत्रिक स्वतंत्रता अधिक हो. ये तो समय ही बताएगा कि इस त्रासदी के बाद श्रीलंका कैसे बसेगा, वहां कैसी व्यवस्था बनेगी.


Rani Sahu

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