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एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने मित्र के साथ मटन (Mutton) खाते हुए फेसबुक पर फ़ोटो डाली. फ़ौरन उनके ही एक मित्र ने उन्हें टैग कर लिखा कि चूंकि सिन्हा जी मटन खाते हैं
शंभूनाथ शुक्ल
एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने मित्र के साथ मटन (Mutton) खाते हुए फेसबुक पर फ़ोटो डाली. फ़ौरन उनके ही एक मित्र ने उन्हें टैग कर लिखा कि चूंकि सिन्हा जी मटन खाते हैं, इसलिए आज से मैं इनकाबॉयकाट करता हूं. मज़े की बात कि आज से तीन दशक पहले वे तीनों लोग एक ही मीडिया संस्थान में जुड़े थे. साथ काम किया, और खूब एक-दूसरे के यहां गलबहियां कीं. लेकिन आज फेसबुक पर दूसरे ने पहले को ब्लॉक कर दिया और ब्लॉक ही नहीं किया, इसकी सार्वजनिक घोषणा भी की.
किसी को भी लग सकता है, कि अरे फेसबुक तो एक आभासी दुनिया है, यहां कही गई बात पर क्या गौर करना! मगर यह एक भूल होगी. फेसबुक, ट्वीटर (Social Media) आदि आज असल दुनिया से बहुत अधिक शक्तिशाली हैं. ख़ासकर घृणा को प्रसारित करने में. आज जो अपने से भिन्न खानपान या अलग आस्था, विश्वास वालों के बीच नफ़रत फैल रही है, उसमें इस सोशल मीडिया का बहुत बड़ा रोल है.
एक ही परिवार में अलग भोजन
ऐसा क्यों हुआ कि आज समाज इतना असहिष्णु हो गया है कि सिर्फ़ दूसरे का भोजन देख कर उसे हटा दिया. दुनिया भर में हर मनुष्य का अलग खानपान है. यहां तक कि एक ही परिवार में भोजन में कोई न कोई विशिष्ट चीज़ हर व्यक्ति को पसंद या नापसंद होती है. किसी एक सदस्य को आम से एलर्जी हो जाती है तो दूसरे सदस्य को अमरूद से. लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं होता कि हम आपस में बातचीत बंद कर देते हैं. इस तरह तो हमारा परिवार ही नहीं सिकुड़ेगा, बल्कि भाई, भाई आपस में लड़ने लगेगा. यही असहिष्णुता है, कि आज लोग भिन्न मत रखने वाले, भिन्न भोजन करने वाले व्यक्ति को पसंद नहीं करते. आज से 25-30 वर्ष पहले तक यह असहिष्णुता समाज में नहीं थी. एक ही घर में रहते हुए भी भिन्न मत, भिन्न आस्था व भिन्न भोजन सबको स्वीकार्य थे. यहां तक कि राजनीतिक विचारधारा भी अलग-अलग होती.
मुसलमान मांस खाता है?
दरअसल इस तरह की भावनाओं और घृणा का कारण समाज में यह एक विचार भी है, कि मुसलमान मांसाहारी होते हैं. चूंकि मुसलमान मांसाहारी है, इसलिए वह हिंदू जो मांस खाता है, वह मुस्लिम संस्कृति का पोषण करता है, इसलिए उसे बाहर करो. यह एक तरह से एक समुदाय विशेष के प्रति असहिष्णु हो जाना है. आज समाज जिस राह पर चल पड़ा है, उसका अंत कहां होगा, किसी को नहीं पता. सच तो यह है कि आज की राजनीति ऐसे विचारों पर अंकुश लगाने का काम नहीं कर रही, उलटे उसे बढ़ा रही है. आज जिस अराजक तरीक़े से मुसलमानों के खानपान, उनकी वेशभूषा और रहन-सहन व उनके उपासना स्थलों पर हमले हो रहे हैं, उसका अंत क्या होगा? यह एक गंभीर सवाल है. फ़र्ज़ कीजिए कि इस देश में मुसलमान न रहें तो क्या यह देश शांत हो जाएगा. यहां परस्पर प्रेम और सद्भाव होगा? क्या फिर सब हिंदू होंगे? इनका जवाब भी व्यवस्था को देना चाहिए अन्यथा ऐसे विचारों को पनपने से रोकिए.
फिर अगड़े-पिछड़ों में होगी रार
धार्मिक आधार पर कोई भी देश आज तक फला-फूला नहीं है. मुसलमानों के आने के पूर्व क्या यहां झगड़े नहीं थे? क्या परस्पर मत-मतांतर बहस नहीं करते थे? अगर नहीं तो द्रविड़, आर्य, बौद्ध, जैन आदि क्या हैं? पाकिस्तान धर्म के आधार पर देश बना तो कौन-सी शांति क़ायम कर ली? वहां पर हर सरकार सेना की मुखापेक्षी होती है. आज घृणा फैलाने वाले तो कल को चले जाएंगे, तब क्या होगा? एक ही संतान हिंदू धर्म मानने वालों में असंख्य जातियां हैं, जिनमें परस्पर बेटी और रोटी के रिश्ते तक नहीं हैं. आज जो लोग मुसलमानों के बहिष्कार की बात कर रहे हैं, वे कल अगला-पिछड़ा में बंटेंगे. इसके बाद ब्राह्मण-ठाकुर भिड़ेंगे और यादव-कुर्मी. फिर उनमें भी भेद होंगे. इसी भिन्नता को पाटने के लिए परस्पर सद्भाव का सूत्र आया. प्रकृति ने सभी मनुष्यों को बुनियादी तौर पर रक्त, मांस, मज्जा से निर्मित किया है. लेकिन तमाम अंतर भी रखे और यह अंतर या फ़र्क़ ही प्राकृतिक संतुलन है, जिसे क़ायम रखना मनुष्य की ज़िम्मेदारी है. प्रकृति संतुलन से चलती है असंतुलन उसको नष्ट करता है. आज का समाज इस असंतुलन को ही बढ़ा रहा है.
बनाओ हिंदू राष्ट्र लेकिन सड़क पर नहीं
इसे रोकने की ज़िम्मेदारी सरकार की है. सरकार यह तय करे कि वह किस तरह से घृणा के प्रसारकों पर अंकुश लगाएगी. जो भी नीति बनानी हो, उसके लिए संसद है, सड़क नहीं. सरकार यह निर्णय कर ले कि हमें इस देश को धर्म निरपेक्ष बनाना है या हिंदू बनाना है. हिंदू बनाना है तो धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति उसका रवैया क्या होगा? हिंदुओं की विभिन्न जातियों, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समाजों को कैसे मुख्यधारा में लाया जाएगा? कैसे सबकी शिक्षा का प्रबंध होगा, सबके स्वास्थ्य की देखभाल होगी और सबको रोज़गार मिलेगा? सरकार इसके लिए एक रोड-मैप बनाए और संसद से उसे पारित कराए, तब ही हम एक स्वस्थ लोकतंत्र की बढ़ रहे होंगे. इस तरह सड़क पर हल्ला मचाने से हम एक ऐसी अंधी गाली में प्रवेश करेंगे, जिसमें घुस तो जाएंगे लेकिन निकल नहीं पाएँगे. पूरा विश्व आज जिस तबाही के कगार पर है, उसमें हम भारत से एक नई राह की कामना ही कर सकते हैं. क्योंकि भारत में आज भी बुद्धिजीवी चाहे जिस ख़ेमे का हो, उसमें लिहाज़ बाक़ी है.
एक पत्रकार की आत्म-ग्लानि
इस संदर्भ में मैं एक दक्षिणपंथी पत्रकार की आत्मग्लानि को शेयर कर रहा हूं. उन्होंने लिखा है, गांधी जी की पोती श्रीमती तारा गांधी भट्टाचार्य के बारे में यूं तो कुछ भी लिखना अपने आप में सूरज को आईना दिखाने जैसा है. कुछ दिनों पहले ही गुजरात के गांधी आश्रम से गांधी दर्शन के साक्षात्कार करके लौटने के बाद मंगलवार को महात्मा गांधी जी की पौत्री श्रीमती तारा गांधी जी से मेरी अनौपचारिक मुलाकात हुई. जानकी जन्मोत्सव के अवसर पर इन्दिरा गांधी कला केन्द्र में आयोजित वैदेही कार्यक्रम में श्रीमती तारा गांधी के भी उपस्थित होने की जानकारी मिली. यूं तो मेरा युवा मन भी गांधी से कहीं अधिक वीर सावरकर और भगत सिंह का समर्थक है लेकिन गांधी दर्शन को आप सिरे से नहीं नकार सकते. ऐसे देश के तमाम लोगों की जमात में एक मेरा नाम भी शामिल था.
हुआ यूं कि कार्यक्रम शुरू होने में अभी कुछ देर बाकी थी, लिहाजा श्रीमती तारा गांधी को ऑडिटोरियम के बाहर खुली जगह में बैठाया गया उनके साथ दो महिला सहायिकाएं भी थीं. मेरे साथ की पत्रकार मित्र बार बार श्रीमती गांधी के साथ फोटो लेने का आग्रह कर रही थीं, लेकिन किसी में साहस नहीं हो रहा था कि केवल एक फोटो के लिए हम श्रीमती तारा गांधी जैसी शख्सियत से बात करें. यह बात करने का बहुत ही बेमानी और हल्का कारण प्रतीत हो रहा था. साक्षात्कार के लिए मेरे पास कॉपी पेन नहीं था, केवल हाथ में मोबाइल और मास्क ही था. बावजूद इसके मैने कुछ चुनिंदा प्रश्न करने का सोचकर श्रीमती गांधी जी को पहले सादर प्रमाण किया और फिर उससे अपने प्रश्न पूछने की इच्छा जाहिर की.
88 साल की उम्र में भी बेहद सहज और सरल स्वभाव की श्रीमती गांधी ने मेरे प्रश्न पूछने से पहले ही कहा "आप किस तरह साक्षात्कार लेंगी कोई कॉपी पेन या रिकार्डर तो है नहीं आपके पास?", यह मेरे लिए सच में असमंजस की स्थिति थी क्योंकि प्रश्न तो दिमाग में थे लेकिन मेरे मोबाइल में वॉयस रिकार्डर नहीं था, लेकिन उनके कहने पर मैंने मोबाइल में कोई एप खोला और ओके करके यह दिखाने का नाटक किया कि अब आपकी मेरी वार्ता रिकार्ड हो रही हैं. जबकि अंतर्मन इस झूठ से कांप गया कि गांधी जी पोती के सामने मैं झूठ बोल रही हूं, कि इंटरव्यू रिकार्ड हो रहा है. उन्होंने फिर कहा "आप जो पूछ रही हैं उसे भी रिकार्ड करिए", आप पत्रकार लोग बाद में प्रश्न बदल भी सकते हैं. ठीक है ऐसा कहकर मैंने साक्षात्कार रिकार्ड करने की मुद्रा बनाते हुए मोबाइल के माइक को श्रीमती तारा गांधी की तरफ कर दिया.
झूठी रिकार्डिंग की बातमुझे बार-बार आत्मग्लानि से भर रही थी. युवाओं में गांधी दर्शन, अहिंसा और प्राकृतिक उपचार आदि विषय पर संक्षेप में तीन प्रश्न करने के बाद मैंने श्रीमती तारा जी का धन्यवाद किया और हम सभी ऑडिटोरियम की ओर चल पड़े. जब तक मैंने इस सत्य को स्वीकार नहीं किया कि साक्षात्कार के लिए रिकार्डिंग करने का झूठ उनसे बोला मुझे चैन नहीं मिला. हालांकि जीवन में मैं झूठ से दूरी ही बना कर रखती हूं लेकिन सत्य के साथ मेरे प्रयोग के महान लेखक और राष्ट्रपति गांधी जी की पोती के इस साक्षात्कार में यदि सत्य का परिचय दिए बिना मैं कुछ लिखती तो शायद उनके विचारों और मेरी पत्रकारिता दोनों के लिए ही यह बेमानी होता.
अभी उम्मीद बाक़ी है
इस तरह की स्वीकारोक्ति कहीं न कहीं इस बात का अहसास भी कराती है, कि कुछ भी हो अभी देश में समाज में लाज और शर्म बाक़ी है. और समाज में कितनी भी अराजक सोच क्यों न हो, इस तरह का अपराध बोध रास्ता दिखाता रहेगा. सरकार और राजनेताओं को चाहिए कि धार्मिक आडम्बरों को बढ़ावा देने की बजाय स्वयं के आचरण से यह जताएं कि समाज को धर्म ही नहीं रोटी, कपड़ा और मकान भी देना है. फिर राज किसी का भी हो समाज अराजक नहीं होगा. इस उम्मीद को बचाए रहना ज़रूरी है.
Rani Sahu
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