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सुधीश पचौरी: एक बहस बढ़ती है कि अचानक एंकर कहने लगता है: सारी! कोई ऐसी बात न करें… हमारा चैनल इसका समर्थन नहीं करता… सबकी आवाजें धीमी करो… फिर कुछ देर बाद वही-वही होने लगता है, एंकर फिर से सारी सारी करने लगता है। बोलने वाला चुप हो जाता है या बेआवाज कर दिया जाता है!
तब काहे ऐसे मुद्दों पर बहसें कराते हो! कराओ 'बरसात के दिनों में जामुन का स्वाद' या 'बरसात के दिनों में लंगड़े का मजा'! या कहो कि न लीना देवी ने काली देवी को सिगरेट पीते दिखाया, न किसी की भावनाएं आहत हुईं, न किसी ने उसका समर्थन किया न किसी पर एफआइआर हुए!
बापू के बंदर क्यों नहीं बन जाते? क्यों दिखाते हो उन नए-नए वीडियो को जिनमें कोई किसी को निशाना बनाने की योजना बना रहा है, जिसके पीछे इस या उस संगठन की योजना है! और क्यों बुलाते हो उनको जो 'सिगरेट' को अभिव्यक्ति की आजादी कहते हैं और शराब-मीट को माता के प्रसाद की तरह बताते हैं!
काहे बुलाते हो उन्हें जो कहते हैं कि उसने हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाई है, कि आपने भी तो चोट पहुंचाई थी! जब सब 'क्रिया की प्रतिक्रिया' है तो किसकी किससे माफी! मीडिया में अपना हल्ला देख लीना जी फिर छेड़ती हैं: वे शिव-पार्वती के एक्टरों को सड़क पर सिगरेट पीते दिखाती हैं! एक निरी अज्ञात कुलशील मीडिया में छा जाती हैं! और क्या चाहिए? वे पहले कहती थीं कि 'मैं जान भी दे सकती हूं', फिर कहने लगीं कि 'मैं कहीं सुरक्षित नहीं हूं', फिर कहिन कि 'निम्नजीवी ट्रोल' (लो लाइफ ट्रोल) पीछे पड़े हैं, फिर कहिन कि 'सबसे बड़ा जनतंत्र सबसे बड़ी घृणा की मशीन है…' कैसा टुच्चा 'दुरहंकार'! मगर कुछ चर्चक इसका भी समर्थन करते नजर आते हैं!
लेकिन अपने एंकर, रिपोर्टर और पैनलिस्ट भी क्या करें? आदत से लाचार वे एक न एक नया उत्तेजक वीडियो दिखाने लगते हैं (ताकि टीआरपी बनी रहे) कि अजमेर के धमकी वाले को जब पुलिस ने पकड़ा तो पुलिस अफसर ने उसे समझाया कि 'बोल नशा किया, बच जाएगा!
चैनल व्यर्थ कोसते हैं अफसर को वह कहता है कि वह तो ऊपर वालों के आदेश बजा रहा था। कितनी तो 'रहमदिल' है पुलिस! एक बार फिर धमकियां बरसने लगती हैं: एक 'ब्रेकिंग न्यूज' कहती है कि किसी ने 'उसकी' जीभ काटने के लिए दो करोड़ का इनाम रखा है! फिर कोई बोल उठता है कि वह एक… तो हम दस…
लीजिए मिल गया न मुद्दा! एंकर फिर मांग करेंगे कि इसे 'कंडेम' करो, उसे 'कंडेम' करो, कि इसे 'अरेस्ट' करो, उसे करो तो जवाब आएगा कि 'उसे' कहां छिपा रखा है? पहले उसे 'अरेस्ट' करो, कि वह 'माफी मांगे' कि 'पहले वह मांगे'।
आप देखते रहिए चैनलों में 'लट्ठमलट्ठा'! फिर जैसे ही बहस गरम होगी, एंकर तुरंत कहेंगे कि सारी! इसके आगे मत बोल भैये। तेरे हाथ जोड़ता हूं। रोटी रोजी का सवाल है…जो पहले रोज आग में घी डालते रहे, अब कहते हैं कि अब और घी न डालो भैये!
सच! कल तक दनदनाने वाले एंकरों की पूंछ निकल आई है। एक आतंकी का डर, दूसरा कानून का डर और तीसरा मालिक का डर! चैनलों में 'डर' बैठ गया है! इस 'डर' के खिलाफ कोई 'आजादीपरस्त' नहीं बोलता सर जी! कई चैनलों में कई चर्चक एक पत्रकार की गिरफ्तारी पर तो आंसू बहाते हैं, लेकिन जघन्य 'दुष्कांडों' को 'क्रिया की प्रतिक्रिया' कह कर निपटा देते हैं! कहते हैं कि अदालत ने भी तो यही कहा!
ऐसे कथित 'लिबरल' आंसू भी सबके लिए न होकर अपनों-अपनों के लिए होते हैं। फिर भी खबरें और बहसें बहुत कुछ बता जाती हैं: एक कहता है कि ऐसी 'घृणा' यहां-यहां पढ़ाई जाती है। दूसरा कहने लगता है, गलत, वहां नहीं पढ़ाई जाती… वह तो 'चौदह' के बाद शुरू हुई। इसका जवाब आता है कि 'सैंतालीस में किसने शुरू की, चौरासी में किसने शुरू की, कि फ्रांस में या अमेरिका के टावरों को चौदह वालों ने तोड़ा?
फिर एक दिन चैनल 'लाइव' दिखाता है कि महाराष्ट्र में 'जमीर' वालों के पास 'जमीर' रह जाता है और 'वजीर' वालों के पास 'नया वजीर' आ जाता है! फिर एक रोज 117 गण्यमान्य चिट्ठी लिख देते हैं कि न्यायालय की चर्चित टिप्पणी 'गैरजरूरी' थी। कृपया पुनर्विचार करें!
चैनलों की बहसों से तीन-चार न्यूटनिया-कूटनिया सिद्धांत झरने लगते हैं! 'क्रिया की प्रतिक्रिया', 'मैं चोर तो तू भी चोर', 'आजादी' बरक्स 'आजादी विद जिम्मेदारी' और कि 'हम सब पाखंडी' (हिप्पोक्रेट) हैं। यानी 'खंड खंड पाखंड पर्व'!
शुक्रवार की सुबह जापान के पूर्व पीएम शिंजो आबे को गोली मार दिए जाने की खबर चैनलों को कूलर-सेक्युलर बना जाती है, फिर भी एक चैनल बताने लगता है कि चीनी कामरेड तो खुशियां मना रहे हैं! इसे कहते हैं 'क्रांतिकारी मानवीयता'!