- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- जड़ता की अंधी गलियां
भावना मासीवाल: हमारे देश की आजादी के पचहत्तर वर्ष पूरे हो गए हैं और इसे आजादी का अमृत महोत्सव के रूप में मनाया भी गया। इस महोत्सव के मूल में ब्रिटिश हुकूमत से भारत की आजादी है। हम बाहरी ताकतों से देश के आजाद होने का उत्सव हर वर्ष मनाते ही हैं, लेकिन यह वर्ष विशेष रूप से उल्लेखनीय है। एक तरफ जब पूरा देश आजादी के इस महापर्व के उल्लास और उमंग में था तो दूसरी तरफ राजस्थान के एक स्कूल में हुई घटना हमें देश के भीतर की अराजक व संकीर्ण मानसिकता से भरी ताकतों से घिरे होने का अहसास कराती हैं।
बाहरी ताकतों से तो हमें आजादी मिल गई और हम देशवासी फिर से बाहरी ताकतों से एकजुट होकर लड़ सकते हैं, अलग-अलग अपेक्षाएं और उनकी सीमाएं निर्धारित कर सकते हैं, लेकिन जो ताकतें देश के भीतर विराजमान हैं, उनसे लड़ना और उनकी सीमाओं का निर्धारण करना सरल नहीं है।
दरअसल, हम आजाद देश के नागरिक जरूर हैं, मगर भीतर से परंपरा के नाम पर कई विकृत रूढ़ियों से बंधे हैं। ये रूढ़ियां हमारे विचार व व्यवहार में इतनी अधिक संकीर्ण है कि समाज को भीतर से खोखला और अपंग बना रही हैं। यह अपंगता व्यक्ति के विचार और व्यवहार में देखी जा सकती है। हम चाह कर भी इससे बाहर नहीं आ पा रहे हैं।
शायद यही वजह है कि कहीं राजस्थान में मासूम बच्चे द्वारा पानी पीने के मटके को छू देने भर के कारण उसे अपनी जान से हाथ धोने की खबर आती है तो कहीं स्त्री होने के कारण यौन शोषण के त्रासद अपराध के दौर से गुजरना पड़ता है और जीवन भर अपने ही खिलाफ हुए अन्याय के खिलाफ अकेले लड़ना पड़ता है।
हमारे आसपास ऐसी बहुत-सी घटनाएं होती रहती हैं जो हमें खुद से ही सवाल करने पर मजबूर करती है। लेकिन सच यह है कि हम उन सवालों के जवाब न पाकर व्यवस्था के प्रति आक्रोश जाहिर करने लगते हैं। यह आक्रोश कभी न्याय का मजबूत पक्ष बनता है तो कभी अन्याय का।
यह हमारे समय की विडंबना ही कही जाएगी कि एक तरफ हम देश को वैश्विक फलक पर मजबूत प्रतिनिधि के रूप में खड़ा करना चाहते हैं, हम एक राष्ट्र, प्रेम और सौहार्द का गीत गाते हैं, मगर वहीं हमारे ही बीच के कुछ लोग उस राष्ट्रभाव और एकता के बंधन को अपनी संकीर्ण, जड़ और हिंसक प्रवृति के कारण खंडित करते देखे जाते हैं। फिर वह जाति और जेंडर की संकीर्ण मानसिकता ही क्यों न हो। जबकि इस कसौटी पर नाकाम समाज और देश अपने न्यायपूर्ण होने का दावा नहीं कर सकता।
यों भी किसी देश की उन्नति उसके नागरिकों के आपसी सहयोग व सौहार्द से होती है। जब आम नागरिक ही सामाजिक रूढ़ियों, जातिगत भेदभाव की बंदिशों से घिरा होगा तो हम किस राष्ट्र का विकास करेंगे।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा भी था कि 'कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता, जब तक उसके लोगों की सोच या उनका काम संकीर्ण रहेगा'। यह एक देश और समाज के बनने के लिए एक शर्त के तौर पर देखा जाना चाहिए।
शिक्षा व्यक्ति को मनुष्य बनाती है, उसमें आत्मसम्मान, प्रेम, आजादी, सौहार्द, भाईचारे, समानता का भाव जगाती है। लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था में आपसी सौहार्द से अधिक जातिगत तो कभी सामाजिक लिंग यानी जेंडर के मसले पर तो कभी क्षेत्रगत वैमनस्य का भाव देखने को मिलता है। यह भाव कभी श्रेष्ठता के झूठे बोध की ग्रंथि से तो कभी हीनता बोध की ग्रंथि से ग्रसित मिलता है।
दोनों ही स्थितियों में यह समाज को खोखला और नई पीढ़ी को वैमनस्य के भाव से भर रहा है। यह वैमनस्य का भाव किताबी शिक्षा से अधिक व्यावहारिक शिक्षा और ज्ञान से दूर किया जा सकता है, लेकिन इसे अपने हाल में या यथास्थिति में छोड़ देने के नतीजा यह होगा कि राजस्थान जैसी कितनी ही घटनाएं घटित होती रहेंगी और एक व्यक्ति की संकीर्ण मानसिकता पूरे समाज और राष्ट्र को कठघरे में खड़ा करती रहेगी।
हम इस सच से भी वाकिफ हैं कि हमारे समाज की इस जड़ मानसिकता को खाद पानी देने का काम राजनीति ने ही किया है। दरअसल, राजनीति इसी व्यवस्था को हथियार बनाकर अपना वोट बैंक तैयार करती है।
यही वोट बैंक फिर समाज में राजनीति के समीकरण तैयार करता है और जड़ संकीर्ण मानसिकता को पैदा करता है। एक ओर समाज में जाति व्यवस्था के टूटने की बात की जाती है तो दूसरी ओर जाति के भीतर उप-जातियां अधिक मजबूत बनकर उभर रही हैं।
यह हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का ही हिस्सा है कि हम समाज और जातिगत व्यवस्था को बदलने नहीं देना चाहते हैं, क्योंकि अगर समाज बदलता है तो वर्चस्वशाली जातियों की जातिगत राजनीति भी टूटने लगेगी और जड़ मानसिकताएं धीरे-धीरे समाप्त होने लगेंगी। लेकिन यह एक आम आदमी का दिवास्वप्न ही है, क्योंकि आज भी राजनीति में वर्चस्वशाली समूह अपनी सुविधा के मुताबिक मुद्दे उभरने देते हैं और उसके हल की खोज करते हैं।