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दैनिक ट्रिब्यून,टोक्यो में चल रहे पैरालंपिक में भारतीय खिलाड़ियों की स्वर्णिम सफलता निस्संदेह प्रेरणादायक है। इस मायने में भी कि कुदरत व हालात के दंश झेलते हुए उनका मनोबल कितना ऊंचा था कि उन्होंने मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति खेल में कितनी कामयाबी हासिल की। सामान्य ओलंपिक खेलों में भी कभी ऐसा नहीं हुआ कि एक ही दिन में पांच पदक हमें हासिल हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह कि इसमें दो स्वर्ण पदक भी शामिल हैं। सचमुच पैरालंपिक में हमारे खिलाड़ियों ने नया इतिहास लिखा है। उनका प्रदर्शन हर सामान्य व्यक्ति के लिये भी प्रेरणा की मिसाल है कि जज्बा हो तो जीवन में कुछ भी हासिल किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भी शिखर की ऊंचाई हासिल की जा सकती है। दरअसल, ये खिलाड़ी दो मोर्चों पर संघर्ष कर रहे थे। एक तो अपने शरीर व सिस्टम की अपूर्णता के विरुद्ध और दूसरे दुनिया के अपने जैसे लोगों के साथ खेल स्पर्धा में। दरअसल, हम आज भी उस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं जहां दिव्यांगों को समाज सहजता से स्वीकार करता है। उन्हें समाज के तानों से लेकर अपनों का तिरस्कार भी झेलना पड़ता है। उन्हें तरह-तरह के नकारात्मक संबोधन से पुकारा जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने दिव्यांग शब्द देकर उन्हें जरूर गरिमा का संबोधन दिया है। वैसे देश में दिव्यांगों के जीवन के अनुकूल परिस्थितियां विकसित नहीं की जा सकी हैं। खेल के लिये अनुकूल हालात तो दूर की बात है। निश्चय ही ये खिलाड़ी इस मुकाम तक पहुंचे हैं तो इसमें उनके परिवार का त्याग व तपस्या भी शामिल है। ऐसे स्वर्णिम क्षणों में देश के प्रधानमंत्री का फोन पर इन खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाना इन प्रतिभाओं को जीवन का अविस्मरणीय अहसास दे जाता है। जो उन जैसे तमाम खिलाड़ियों को भी एक प्रेरणा देगा कि वे जीवन में कुछ ऐसा कर सकते हैं कि जिस पर देश का प्रधानमंत्री भी गर्व कर सकता है।
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